Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 12
________________ २] [ जैनधर्म-मीमांसा तत्त्व को अर्थात् कल्याणमार्ग के लिये उपयोगी या आचरणीय बातों को जानना जरूरी है इसीलिये सम्यग्दर्शन में तत्त्व पर विश्वास करने पर जोर दिया जाता है । सम्यक्चारित्र का लक्षण है 'स्त्रपर कल्याण के अनुकूल आचरण'। कभी कभी वह आचरण प्रवृत्तिप्रधान होता है, कभी कभी निवृत्तिप्रधान । पर चारित्र का सम्बन्ध प्रवृत्ति निवृत्ति से नहीं है वह है कल्याण से । अगर किसी आचार से जगत् में सुखवृद्धि होती है या दुख कम होता है तो वह सम्यक् चारित्र है । अकषायता, आत्मशुद्धि, प्रेम आदि सब सम्यक चारित्र के रूप हैं। शंका-जैनाचार्योंने रागद्वेषकी निवृत्तिको सम्यक्चारित्र* कहा है । इतना ही नहीं, किन्तु चारित्र की पूर्णता के लिये वे यह भी आवश्यक समझते हैं कि मन वचन काय की क्रियाओं का पूर्ण विरोध होना चाहिये । परन्तु आपने जो चारित्र का लक्षण किया है, वह प्रवृत्तिरूप मालूम होता है। उत्तर--चारित्र के किसी एक रूप पर जोर डालना सामयिक आवश्यकता का फल है । जिस युग में जिस विषय में प्रवृत्तिमुख से पाप फैला होता है उस युग में उस विषय में निवृत्तिरूप में * बहिरमंतर-किरिया-रहो भवकारणप्पणासहं । णाणिरस जं जिणुतं तं परमं सम्मचारितं-द्रव्यसंग्रह । भवत्प्रहाणाय बहिरभ्यन्तरक्रिया-विनिवृत्तिःपरं सम्यक् चारित्रम बानिनो मतम् । त० लोकवत्र्तिक १-१-३ । संसार. कारणविनिवृत्तिम्प्रत्यागृर्णस्य ज्ञानवती बाह्याभ्यन्तराक्रियाविशेषोपरमः सम्यक् चारित्रम । त० राजवर्तिक १-५-३ ।

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