________________ लेखकीय शास्त्र और अर्थशास्त्र संसार अर्थ के इर्द-गिर्द घूम रहा है। अर्थ को इतना महत्व मिला कि इसकी प्राप्ति के लिए हित-अहित विवेक को भी उपेक्षित किया जाने लगा। यहाँ तक, अर्थ के जो शास्त्र बने या बनाये गये, उनमें भी नीति-अनीति और हिंसाअहिंसा के विवेक की प्रायः अवहेलना हुई है। फलस्वरूप सुख-शान्तिमय, सहअस्तित्वपूर्ण जिस आदर्श अर्थ-समाजव्यवस्था की अपेक्षा सबको है, उसकी पूर्ति नहीं हो पा रही है। ढेर सारी चीजों और अत्याधुनिक उपकरणों के बीच आदमी अशान्त है। इस अशान्ति को मिटाने के लिए वह और-और चीजें प्राप्त करना चाहता है। उपभोक्तावादी व्यवस्था उसकी चाहत को हवा देती है। परन्तु स्थायी सुख महज भौतिक सम्पदाओं पर आश्रित नहीं है। भीतर और बाहर की सम्पदाओं के विवेकसम्मत सुमेल पर आदर्श आर्थिक सामाजिक व्यवस्था स्थापित की जा सकती है। जैन आगम ऐसी उत्तम व्यवस्था के प्राचीनतम आधार हैं। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के छः अध्यायों में जैन आगमों में प्रतिपादित आर्थिक चिन्तन का कई दृष्टियों से मूल्यांकन किया गया है। प्रथम अध्याय में जैन आगम साहित्य का परिचय दिया गया है। इस समीक्षा से यह अनुमान लगाना आसान है कि जैन आगम साहित्य का परिमाण विपुल है और विषय-सामग्री विविध है। द्वितीय अध्याय में जैन परम्परा में स्पष्ट या गर्भित रूपों में प्राप्त अर्थ सम्बन्धी तथ्यों पर विचार किया गया है। यह विचार अर्थ के प्रति सम्यक् दृष्टिकोण विकसित करता है। अर्थोपार्जन के साधनों, मुद्रा और राजस्व के आगमिक उल्लेखों का विवेचन भी इस अध्याय में किया गया है। तीसरे अध्याय में जैन आगमों में वर्णित आर्थिक जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। यह अध्याय प्राचीन भारत के जैन आगमों में उल्लेखित व्यापार, वाणिज्य और उद्योगों की जानकारी प्रदान करता है। इसके माध्यम से तत्कालीन समाज के आर्थिक जीवन तथा आगमों में अंकित अपरिग्रही, संयमी और साहसी उद्यमियों के प्रेरक चरित्र भी उजागर हुए हैं, जो आज के भौतिकवादी ... मानव को अर्थ और अध्यात्म (प्रवृत्ति और निवृत्ति) के समन्वय से निष्पन्न जीने (xvii)