Book Title: Jain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Author(s): Manishsagar
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 23
________________ सन्दर هی می شی شی شی شی کی کمی میں منی کی کمی کے जैन जीवनशैली पर आधारित एक श्रेष्ठ कृति छ ____Prof. (Dr.) Anupam Jain Head of Department (Mathematics) Ex-Controller of Examination Govt. Holkar Science College, Indore सूचना और संचार क्रान्ति के इस युग में ज्ञान का विस्फोट हुआ है और विशेषज्ञ इस ज्ञान के प्रबन्धन में जुटे हैं। उनकी प्राथमिकताओं के क्रम में अर्थप्रबन्धन एवं समयप्रबन्धन तो है, किन्तु समाज, पर्यावरण, व्यवहार और उन सबसे ऊपर जीवन-प्रबन्धन गौण हो गये हैं। सम्यक् सूचनाओं के अभाव में जैनधर्म और जैनशास्त्रों में निहित ज्ञान सम्पदा से विश्व अकादमिक समुदाय सदियों से अनभिज्ञ रहा। बीसवीं सदी में जैन आगमसाहित्य तथा उसके व्याख्यासाहित्य के प्रकाश में आने से चिन्तकों का ध्यान इसमें निहित ज्ञाननिधि की ओर आकृष्ट हुआ एवं विगत 2-3 दशकों में इसमें निहित तथ्यों का न केवल आध्यात्मिक व दार्शनिक दृष्टि से, अपितु जीवनशैली के विविध पक्षों की दृष्टि से भी विश्लेषण हुआ और जैनधर्म के सामाजिक सरोकारों को भी प्रमुखता से रेखांकित किया जाने लगा है। विलक्षण प्रतिभा के धनी मुनिश्री मनीषसागरजी ने समग्र जैनसाहित्य का आलोडन कर उसमें से अमृतमयी जीवन-प्रबन्धन के सूत्रों को निकाला है। 14 अध्यायों में विभक्त शोध प्रबन्ध में शिक्षा, शरीर, अभिव्यक्ति, तनाव, पर्यावरण, समाज, अर्थ, भोगोपभोग, धार्मिक-व्यवहार एवं आध्यात्मिक विकास प्रबन्धन जैसे समसामयिक विषयों को एक-एक अध्ययन में विवेचित किया है। मेरी दृष्टि से , प्रत्येक अध्याय एक पूर्ण पुस्तक है, क्योंकि उसमें न केवल जैन साहित्य में आगत विषयों का संकलन किया गया है, अपितु उसका वर्तमान सामाजिक समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण कर जीवन की गुणवत्ता को सँवारने में उसकी उपयोगिता और आवश्यकता भी प्रतिपादित की है। जीवन-प्रबन्धन के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए पूज्य मुनिश्री ने सटीक लिखा है :- “यद्यपि जैनदर्शन निवृत्तिपरक है, तथापि वह प्रवृत्ति की पूर्ण उपेक्षा नहीं करता। वह निवृत्तिमूलक प्रवृत्ति की बात करता है। जीवन-प्रबन्धन भोग की मर्यादाओं का सीमाकंन करके यही बताता है कि हम किस प्रकार जिएँ, जिससे हम आध्यात्मिक विकास की ऊँचाइयों को स्पर्श कर सकें। अतः हमें जहाँ जीवन के महत्त्व को समझना होगा, वहीं जीवन के प्रबन्धन की महत्ता को भी स्वीकार करना होगा।" ग्रन्थ के सभी 14 अध्यायों में दिये गये सटीक सन्दर्भ स्थल और अन्त में दी गई विस्तृत सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ने इस ग्रन्थ को संग्रहणीय बना दिया है। जहाँ सम्पूर्ण शोध-प्रबन्ध शोध-पिपासुओं एवं पुस्तकालयों के लिये अत्यन्त आवश्यक है, वहीं इसका प्रत्येक अध्याय जैन धर्म को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जिज्ञासा रखने वालों के लिए पठनीय एवं उपयोगी है। जैन जीवनशैली की प्रतिपादक इस श्रेष्ठ कृति की प्रस्तुति हेतु मैं पूज्य मुनिश्री के चरणों में नमोस्तु निवेदित करता हूँ। 10 अगस्त, 2012 Coइन्दौर डॉ. अनुपम जैन ب هی هی هی هی تھی میں عمر کی تھی ع ع ع ع م م فيه في هم هم ممي ممي ممي هي هي هي هي هي هي هي عيع علمی مرا ی در هم می هم عمری میں مرے عمرہ میں تم ه م م ه هم می شد. هر می و م م م م م م مرغ می رسم ی محمد عمر همه مهمی مهری هرم अभिनन्दन के स्वर For Personal & Private Use Only XV www.jainelibrary.org Jain Education International

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