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उसी क्षण वह व्योमचारी पुरुष नीचे उतर गया और आकाश में एक विमान स्थिर हो गया। वह विमान में आया था। उसने विमान को आकाश में स्थापित कर दिया। वर्तमान में वायुयान को आकाश में स्थिर है नहीं रखा जा सकता। आकाश में क्षण भर के लिए रह सकता है, लंबे समय के लिए नहीं। उस व्यक्ति ने वाय्यान को आकाश में स्थिर कर दिया, स्वयं नीचे उतर गया। सबके मन में आश्चर्य, कुतूहल। क्या हो गया? कौन आया है? क्यों आया है? अनेक प्रश्न खड़े हो गए। कैसा आश्चर्यकारी व्यक्ति है। विमान तो ऊपर खड़ा है। हमारे रथ आदि सारे यान धरती पर रहते हैं और यह विमान आकाश में अधर खड़ा है। यह बिना सोपान वीथी. सीढी के नीचे कैसे उतरा? क्या कोई दिव्य देव आया है? सबके मन में आश्चर्य भरे प्रश्न। एक उत्कंठा, उत्सुकता इतनी प्रबल हो गई कि कब इस प्रश्न का समाधान मिले? कब कुतूहल का शमन हो? ___ व्योमचारी ने राज्यसभा में प्रवेश करते ही सम्राट श्रेणिक को नमस्कार किया। नमस्कार कर सामने खड़ा हो गया। खड़ा होकर बोला-'मैं मनुष्य हूं। कोई देव नहीं हूं। मैं एक विद्याधर हूं। मैं अपना परिचय देना चाहता हूं। मुझे लग रहा है-सबके मन में एक कुतूहल है।'
आज अपना परिचय स्वयं देने की प्रथा है। व्यक्ति अपना परिचय स्वयं दे देता है।
मनुष्यों की दो श्रेणियां बन गईं-एक भूमि पर रहने वाले और एक त्रिविष्टप-तिब्बत में रहने वाले यानी हिमालय, विंध्याचल, मलयाचल आदि ऊंचाई वाले पहाड़ों पर रहने वाले विद्याधर। आज भी जो हिमालय, तिब्बत पर रहते हैं, उनके लिए नीचे आना बड़ा कठिन होता है। एक विकास हुआ विद्या का। वह
गाथा विकास भगवान ऋषभ के समय में हो गया था। नमि और विनमि-भगवान ऋषभ के पालित पुत्र थे। ऋषभ परम विजय की राज-पाट छोड़ संन्यासी बन गए। ऋषभ ने संन्यासी बनने से पूर्व अपना राज्य अपने सौ पत्रों में बांट दिया। नमि-विनमि उस समय कहीं भ्रमण के लिए गए हुए थे। उनको राज्य नहीं दिया जा सका। दीक्षा के बाद वे आए, बोले-'आपने हमें राज्य नहीं दिया। हमें राज्य देना होगा।' पीछा नहीं छोड़ा। उस समय धरणेन्द्र देव ने उन्हें हिमालय की श्रेणी पर राज्य दिया। साथ में विद्याएं भी दीं। वहां से विद्याधर वंश का प्रारंभ होता है। विद्या के द्वारा आकाश की यात्रा, अस्त्रों का निर्माण, अस्त्रों का प्रयोग, सुरक्षा। अनेक विद्याओं का विकास हुआ था। हजारों-हजारों विद्याएं साध लेते थे। इतनी चामत्कारिक कि वे विद्या के द्वारा असंभव लगने वाले काम को भी संभव बना देते। ____विद्याधर बोला-'महाराज! मैं विद्याधर हूं। सहस्र शृंग-पर्वत की चोटियों पर रहता हूं। वहां महान् विद्याधर रहते हैं, जिनके पास चामत्कारिक विद्याएं हैं।
नाम्ना सहस्रशृंगोऽथ, राजते गिरिरुत्तमः।
राजन्! तत्र वसन्त्येव, महाविद्याधराः नराः॥ मैं भी अपने परिवार के साथ सहस्रशृंग पर्वत के शिखर पर रहता हूं। मेरा नाम व्योमगति है। मेरा पराक्रम ऐसा है कि उसके लिए किसी सहाय की अपेक्षा नहीं रहती।
भूधरे तत्र तिष्ठामि, सकलत्रश्चिरात्सुखम्। नाम्ना व्योमगतिश्चाहमसहायपराक्रमः।।