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ऐसे मम गुरूवर महा, ध्यान करें अविरूद्ध ।। २ ।। मुरू उपासना - आहार दान, आषध दान, ज्ञान दान, अभयदान के रूप में, संभवित है। दाता, पात्र, देय सामग्री का इस अध्याय में अच्छा विवेचन है।
दाता में ७ गुण होना चाहिए - १. श्रद्धा, २. शक्ति, ३. भक्ति, ४. विज्ञान, ५. निर्लोभी होना, ६. दया, ७. शान्ति। पात्र - जो सम्यग्दर्शनादि गुणों से युक्त हो वही पात्र है । जो जघन्य मध्यम और उत्तम के भेद से तीन भेद युक्त हैं।
दान की महिमा दान का फल भी जानने योग्य है - दान से स्व पर दोनों का अनुग्रह होता है। ज्ञानदान आदि की महमिा बताते हुए आचार्य लिखते हैं -
ज्ञानवान् ज्ञान दानेन, निर्व्याधि भैषजाभवेत् ।
अन्नदानात्सुखी नित्यं, निर्भयोऽश्य दानतः ।। ज्ञान दान से व्यक्ति ज्ञानवान् बनता है, औषध दान से निरोगता, अन्नदान से सुखी जीवन और अभयदान से निर्भयता आती है। दानादिषट् कर्मों के साथ-२ श्रावक को मूलगुणों का पालन भी करना चाहिए | मूलगुणों की पालना हेतु सप्त व्यसनों का स्याग भी उसे होना चाहिए। सप्त व्यसनों से हानि - दुःख दारिद्रय की वृद्धि है इत्यादि विषयों का वर्णन इस अध्याय में है उन्हें पढ़कर अपने-२ योग्य कर्तव्यों में निष्ठ होना चाहिए।
• पाँचवाँ अध्याय -
नैष्ठिक श्रावक का लक्षण बताते हुए इस अध्याय में गुरूदेव ने अणुव्रतों का विस्तृत विवेचन किया है। अणुव्रतों की रक्षा हेतु शीलव्रतों का पालन, स्त्री शिक्षा आदि पर भी प्रकाश डाला गया है। परिग्रही अपरिग्रही की पहचान २४ प्रकार के परिग्रहों का उल्लेख कर उनका त्याग करने की प्रेरणा भी दी है। जिस प्रकार बाड़ लगाने से खेत की रक्षा होती है उसी प्रकार व्रत भी आत्मधर्म की सुरक्षा करते हैं। प्रतिमाधारी नैष्ठिक श्रावक कहलाते हैं। वे अणुव्रत और गुणवतों का निरतिचार पालन करते हैं।
प्रत्येक प्रतिमा के दो रूप होते हैं - एक भावरूप या अध्यात्म रूप और दूसरा द्रव्य रूप या बाह्य रूप । बाह्य त्याग तो देखने में आता है किन्तु अन्तरङ्ग देखने में नहीं
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