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dawanRomwOJapanpowsD शतअष्टोत्तरी.
२३४ रपन्यो चाहे पारसी। मिथ्यामती देव जहांशीस नावे जाय तहां,
एते पर कहै हमें येही पूरो पारसी॥ निशदिन विपै मानै सुकृतको है है नहिं जानै, ऐसी करतूत कर पहुंच्यो चाहे पारसी ॥ नरकमाहिं परैगोसुतीसतीन भरैगो, करेगो पुकारएको न विपति पारसी॥६५
सवैया । देव अदेवमें फेर न मान, कहै सब एक गँवार कहूं को।। है साधु कुसाधु समान गनै चित, रंच न जानत भेद कहूंको ॥ धर्म कुधर्मको एक विचारत, ज्ञान विना नर बासी चहूंको । ताहि विलोकि कहा करिये मन!भूलो फिर शठ कालतिहूंको॥१६॥
दोहा.. नैननितें देख सकल, नै ना देखे नाहि। ताहि देखु को देख तो, नैनझरोखे मांहि ॥ ६७॥
कवित्त. देखे ताहि देख जोपै देखिवेकी चाह धरै, देखे विन आप तोहि पाप बडो लाग है । मोह निंद शैनमें अनादिकाल सोय रह्यो, है देखि तू विचार ताहि सोवै है कि जागै है ॥ रागद्वेपसंगसों मि४ थ्यातरंग राचिरह्यो, अष्ट कर्म जालकी प्रतीति मानि पागै है । वि.
पैकी कलोल हंस देखि देखि भूलि गयो, रूपरस गंध ताहि कैसे । अनुरागै है ॥ ६८॥ र देव एक देहरेमें सुंदर सुरूप वन्यो, ज्ञानको विलास जाको सिॐद्ध सम देखिये । सिद्धकीसी रीति लिये काहू सो न प्रीति किये, है
पूरबके बंध तेई आइ उदै पेखिये ॥ वर्ण गन्ध रस फास जामे, है कछु नाहि भैया, सदाको अबन्ध याहि ऐसो करि लेखिये । अ-, जरा अमर ऐसो चिदानंद जीव नाव, अहो मन मूढ ताहि मर्ण । क्यों विशेखिये ॥ ६९॥
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