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ब्रह्मविलासे
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नाहक विराने तांई अपना कर मानता है, जानता तू है कि नाही अंत मुझे मरना है । केतेक जीवनेपर ऐसे फैल करता है, है सुपनेसे सुखमें तेरा पूरा परना है ।। पंजसे गनीम तेरी उमरके,
साथ लगे, तिनोंको फरक किये काम तेरा सरना है । पाक बे, ऐबसाहिब दिलबीच वसता है, तिसको पहिचान वे तुझे जो त-ह रना है ॥ ६१॥
वे दिन क्यों फरामोश करता है चिदानंद, दोजकके बीच तूं। ६ पुकार पड़ा करता था। उछालके अकाश तुझै लेते थे त्रिशूलसों
आतिससा आब तू तो पीव ही जरता था ॥ तत्ता लोहा करिकी देह तेरी तोरते थे, फिरस्तोंके आगे तू साइत भी न ठरता था। जिंदगानी सागरोंकी उमर तेरी हुई थी, जिसके बीच वे तू ऐसे दुःख भरता था ॥ ६२॥
कवित्त, इकतुकिया. चैतहुरे चिंदानंद इहां बने दोऊ फंद, कामिनी कनक छंद जैन-2 हूँ मैंनकासी है । जिहिंको तू देख भूल्यो, विषयसुख मान फूल्यो,
मोहकी दशामें झूल्यो, अनमैनकासी है ॥ पाये ते अनेक वेर देखै कहा फेरि फेरि, कालकरतव हेरि जैन मैनिकासी है। इनको तूछाँडदेहु 'भैया'कह्यो मान लेहु,सिद्ध सदा तेरो गेह अनमैनाक
सी है ॥ १३॥ है कोटिकोटि कष्ट सहे, कष्टमें शरीर दहे, धूमपान कियो पैन । पायो भेदं तनको वृक्षनके मूलरहे जटानमें झुलि र भूलि रहे किये कष्ट तनको। तीरथ अनेक न्हये, तिरत न कहूं भये, कीरतिके काज दियों दानंहू रतनको । ज्ञानविना बेर वेर क्रिया करी फेर फेर, कियो कोऊ कारज न आतम जतनको ॥ ६४॥ ए धरम न जानतु है मूढ मिथ्या मानतु है, शास्त्रशुद्ध छोरि औ
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