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ब्रह्मविलासमें तू ही जु आय बस्यो जननी उर, तूही रम्यो नित वालकतारे ।।
जोबनताजु भई पुनि तोहिको, ताहीके जोर अनेक ते मारे ॥ है है वृद्ध भयो तुंही अंग रहै सब, वोलत वैन कह तुतरारे । है देखि शरीरके लक्षण भैया तु 'चेतत क्यों नहिं चेतन हारे ॥५३॥
औरसों जाइ लग्यो हितमानिके, वाहीके संग सुज्ञान विडारे। ई. [ काल अनादि वस्यो जिनके ढिग,जान्योन लक्षणये अरि सार ।। र भूलिगयो निजरूप अनूपम, मोह महा मदके मतवारे। तेरो हू दाव वन्यो अवकेतुम, चेतत क्यों नहिं चेतन हारे ॥५४॥
कवित्त. पंचनसों भिन्न रहै कंचन ज्यों काई तज, रंच न मलीन हूँ होय जाकी गति न्यारी है। कंजनके कुल ज्यों स्वभाव कीच है छुवै नाहि, बसै जलमाहि पै न उर्द्धता विसारी है । अंजनके ?
अंश जाके वंशमै न कहूं दीखे, शुद्धता स्वभाव सिद्धरूप सुखएकारी है । ज्ञानको समूह ज्ञान ध्यानमें विराजि रह्यो, ज्ञानदृष्टि
देखो 'भैया' ऐसो ब्रह्मचारी है ॥ ५५ ॥ है चिदानंद भैया विराजत है घंटमाहिं, ताके रूप लखिवेको
उपाय कछू करिये । अष्ट कर्म जालकी प्रकृति एक चार आठ, तामें कछू तेरी नाहि आपनी न धरिये ॥ पूरवके बंध तेरे तेई है आइ उदै होंहि, निजगुणशकतिसों तिन्है त्याग तरिये । सिद्धसम में
चेतन स्वभावमें विराजत है, वाको ध्यान धरु और काहुसों न ॐडरिये ॥५६॥ .
एक शीख मेरी मान आप ही तू पहिचान, ज्ञान द्गचर्ण आन वास वाके थरको । अनंत बलधारी है जु हलको न Pop/od/G/RD/panemanDARO/AROMere
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