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*वीरजी के शिष्य नीवो। विनय-तहतो को त्रिभुवन जश टीको ॥(ध्रुपदं)
६. एहन नहीं छै गृह ते अगारो, तिण सं आख्या जसु अणगारो।।
६. अणगारे नास्यागारं विद्यत इत्यनगारः।
(वृ०-५०११)
सोरठा फुन ए तो सुविचार, निदनीक जे गोत्र पिण। हुवै तास अवधार, इह कारण थी हिव कहै ।।
७. अयं चावगीतगोत्रोऽपि स्यादित्यत आह—(वृ०-प०११)
___ *गौतम गोत्रे करी सहीतो, तिण सं गौतम नाम वदीतो॥
८. गोयमसगोत्ते ण
फून ते कालज योग्य तन-मान तणी अपेक्षाय। न्यूनाधिक पिण देह ह, इह कारण हिव आय ।।
६. अयं च तत्कालोचितदेहमानापेक्षया न्यूनाधिकदेहोऽपि स्यादिति आह ---
(वृ०-प० ११)
*ऊंची सप्त हस्त देह जाणी, आ तो उत्सेध आंगुल माणी॥
१०. सत्तुस्सेहे
सोरठा आख्यो ए तनु-मान, ते तो लक्षण-हीण पिण । हवै कदाचित् जान, इह कारण थी हिव कहै ।।
११. अयं च लक्षणहीनोऽपि स्यादित्यत आह.----
(वृ०-५०११)
१२.
*समचउरस संठाण सुलेह, तिण करि अवस्थित रह्य जेह ॥
१२. समचउरंससंठाणसंठिए
१३,१४. समचउरंससंठाणसंठिए' त्ति, समं नाभेरुपरि अधश्च
सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च तच्चतुरस्र च-प्रधानं समचतुरस्रम् । (वृ०प० ११)
गीतक-छंद तनु नाभि नै ऊपर बली जे अधस्तन हेढ़ वरी। वर पुरुष नाजे सकल लक्षण सहित अवयव तिण करी।। सम शब्द अर्थज तुल्य कहिये, विषमता न ल हीजिये ।
चतुरस्र प्रवर प्रधान तेहिज समचतुरस्र कहीजिये ।। वाल-एतले नाभि नै ऊपर अनै हेसकल पुरुष नां लक्षण सहित अवयवपण करी, सम कहितां तुल्य छ जे चतुरस्र–प्रधान लक्षण ते समचतुरस्र एतलै नाभि नै ऊपर जेतला लक्षण सहित अवयव तेतला लक्षणे सहित अवयव नाभि नै हेठे पिण, एहव अर्थ जणाय छै । वलि बहुश्रुत विचारी कहै ते सत्य ।
१५.
अथवा समा तनु तणा लक्षण उक्त परिमाणे करी। अविसंवादिता चतुर अस्रज समचतुरस्र का फिरी।। फून अत्र ते इहां चतुर दिशि-विभाग उपलक्षित भला। तनु तणां अवयव छ समा ए द्वितिय अर्थ सुनिर्मला॥
१५. अथवा--समा:-शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिन्य
श्चतस्रोऽस्रयो यस्य तत्समचतुरस्रम्। (वृ०-५० ११) १६. अस्रयस्त्विह चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा
(वृ०-५० ११)
इति।
____ *लय-ज्यार सोभे केसरिया साड़ी
३८ भगवती-जोड़
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