Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 347
________________ किसू सामर्थ विकुर्ववा? हिव भाखै जिनराय । चमर असुर नो इंद्र ते, महाऋद्धिवान कहाय ।। जावत् महानुभाव छ, भवन लाख चउतीस। चउसठ सहस्र सामानिका, मंत्रीस्वर तेतीस ।। ११, १२. केवइयं च ण प विकुबित्तए? गोयमा ! चमरे णं असुरिदे असुरराया महिड्ढीए जाव महाणुभागे। मे गं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्माणं, च उमट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तावत्तीसगाणं, १२. 'तायत्तीमगाणं' ति मंत्रिकल्पानाम्। (व०-५० १५४) १३. जाव विहरइ । एमहिड्ढीए जाव एमहाणुभागे। जावत् विचरै विलसतो, एहवो महद्धिक जाव। एहवो महानुभाव छै, प्रभाव सहित कहाव ।। हिव इतरी विकुर्वणा, करवा समर्थ जेह। ते केहवी विकुर्वणा, सांभलज्यो गुण-गेह ।। यथा दृष्टांते स्त्री प्रतै, हस्ते करी युवान । हस्त ग्रहे काम वस थकी, हस्तांगुल करि जान ।। १४. एवतियं च णं पभू बिकुब्वित्तए। अथवा नाभी चक्र नी, आरे करी सहीत । तिम बह देव देवी करी, जंबू द्वीप भरै इण रीत ।। वृद्ध-व्याख्या यात्रा विषै, युवती युवान ताय । हस्ते प्रतिबद्धा छता, उचित प्रदेशे जाय ।। इम बहु रूप विकुर्वता, इक कर्तरि प्रतिबद्ध । चक्र नाभि इक बहु अरा, यथा हवै संबद्ध ।। इण दृष्टांते गोयमा! चमर असूर-इंद सार। समुद्घात वैक्रिय करी, निज प्रदेश विस्तार ।। १५. से जहानामए---जुवती जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा, कामवशाद्गाढतरग्रहणतो निरन्तरहस्तांगुलितयेत्यर्थः । (वृ०-५० १५४) १६. चक्कस्स वा नाभी अरगाउत्ता सिया, 'एवमेव' ति...प्रभुर्जम्बुद्वीपं बहुभिर्देवादिभिराकीर्ण कर्तुमिति योगः। (वृ०-प० १५४) १७. वृद्धस्तु व्याख्यातं यथा यात्रादिषु युवतियूनो हस्ते लग्ना-प्रतिबद्धा गच्छति बहुलोकप्रचिते देशे। (वृ०-५० १५४) १८. एवं यानि रूपाणि विकुब्बितानि तान्येकस्मिन् कर्तरि प्रतिबद्धानि, यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिररकैः प्रतिबद्धा घना निश्छिद्रा। (वृ०-५० १५४) १६. एवामेव गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया वेउव्विय समुग्धाएणं समोहण्णइ, समुपहन्ति–प्रदेशान् विक्षिपति। (वृ०-५० १५४) २०. एवमात्मशरीरप्रतिबद्धरसुरदेवैर्देवीभिश्च पूरयेदिति । (वृ०-५० १५४) २१. संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरइ, शरीरबाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहः । (वृ०-५० १५४) २२. तं जहा–रयणाणं जाव रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ, परिमाडेता अहासुहमे पोग्गले परियायइ, २३. इह च यद्यपि रत्नादिपुद्गला औदारिका वैक्रियसमुद् घाते च वैक्रिया एव ग्राह्या भवन्ति । (वृ०-५० १५४) २४. तथाऽपीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताप्रतिपाद नाय रत्नानामित्याद्युक्त। (वृ०-प० १५४) २५. अन्ये त्वाः-औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैकियतया परिणमन्तीति। (वृ०-प०१५४) इम निज तन प्रतिबद्ध करी, देव देवी करि तेह। पूरे संक्षेपे कह्यो, हिव विस्तार करेह ।। संख्याता योजन तणों, ऊर्ध्व दंड निसरंत । बाहल्य शरीर प्रमाण ते, जीव प्रदेश काढंत ।। सोलै जाति नां रत्न तें, बादर तजे असार । सूक्ष्म पुद्गल सार ते, करै तास अंगीकार ।। वत्तिकार कहै रत्न नां, पद्गल औदारीक । समुद्घात वैक्रिय विषै, वैक्रिय ग्रहिवा ठीक ।। तो पिण पुद्गल रत्न नां, तेहनी पर जे सार। इम तसं उपमाये करी, कह्यो रत्न अधिकार ।। अन्य आचार्य इम कहै, औदारिक पिण रीत । ग्रह्या छता वैक्रियपणे, परिणमै छ धर प्रीत ।। ३१४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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