Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 422
________________ ढाल : ६८ विकुर्वण अधिकार थी, संबंधित संवाद । छठ्ठ उद्देशे कहूं, सुणज्यो धर अहलाद ।। २. *हे प्रभ ! घर तजवै अणगार, पोता नां आगम अनुसार। उपशम आदि गुण करि सहितं, तेह थी भावित-आत्म सकहितं ।। ३. माई मिथ्यादष्टी जाण, कहिवो अन्यतीथि पहिछाण। बीरियलब्धी वैक्रिय - लद्धी, विभंग-नाणलद्धी सप्रसिद्धी। १. विकुर्वणाऽधिकारसंबद्ध एव षष्ठ उद्देशकः । (वृ०-५० १६१) २. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा 'अणगारे ण' मित्यादि अनगारो गृह्वासत्यागाद् भावि तात्मा स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिः । (वृ०-प० १६३) ३. मायी मिच्छदिली वीरियलद्धीए वेउब्धियलद्धीए विभंगनाणलद्धीए मिथ्यादृष्टि रन्यतीथिकः। (वृ०-६० १६३) ४. वाणा रसिं नगरि समोहए, समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइं जाणइ-पासइ? राजगृहे नगरे रूपाणि पशुपुरुषप्रासादप्रभृतीनि । (वृ०-प० १६३) ४. वे वाणारसि नगरी जेह, नगर राजगह विषै छै तेह। पशु प्रमुख नां रूप विशेष, विभंग अवधि करि जाण देखै ? सोरठा बाणारसी रै माय, राजगृही नगरी तणां । जन बहु आया ताय, निज कार्य पशु प्रमुख ले ।। वाणारसी पहिछाण, नगरी विकूर्वतो छतो। राजगृही नां जाण, रूप तिके पिण विकुर्वे ।। जाण देखै तेह, इम गोतम पूछ्यै छत। हिव जिन उत्तर देह, चित्त लगाई सांभलो ।। ८. *हंता गोयम ! जाण देखै, तथाभाव प्रति स्यूं प्रभु पेखै ? अन्यथाभाव प्रतै अवलोय, जाण देखै छै ते सोय? १०. ६. जिन कहै तथाभाव प्रति त्यांही, वस्तू जाणे देख नाही। अन्यथाभाव ते विपरीत जाणी, ते प्रति जाण देखै अनाणी।। किण अर्थे प्रभ ! भाख्यो एह ? तथाभाव प्रति नहीं जाणेह । अन्यथाभावे जाण देखे? हिव जिन उत्तर दै सूविशेखै ।। ते अन्यतीर्थी नै एहवू होय, म्हैं राजगह नगर विकुयॊ जोय । अनैं वाणारसी ना रूप अनेक, जाणं देखू छु सुविशेख ।। ८.हंता जाणइ-पासइ। (श० ३।२२२) से भंते ! कि तहाभावं जाणइ-पासइ? अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? ६. गोयमा ! नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाणइ-पास इ। (श०३।२२३) १०. से केणठेणं भंते? एवं वुच्चइ-नो तहाभाव जाणइ पासइ ? अण्णहाभाव जाणइ-पासइ? ११. गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए. समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रूवाई जाणामि-पासामि। १२. सेस दसण-विवच्चासे भवइ । से तेणठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभाव जाणइ-पास। (श० ३।२२४) इम दर्शण नै वि विपरीत होय, कोइ विभंग अज्ञानी सोय । तिण अर्थे जाव अन्यथाभावो, जाण देखै ए प्रथम आलावो ।। *लय-इण पुर कंबल कोय न लेसी श०३, उ०६,ढा०६८ ३८६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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