Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 459
________________ उपादेय - ग्रहण करने योग्य उपाध्याय - शासन व्यवस्था के सात पदों में एक पद, द्वाद शांगी का प्रवाचक उप्पन्नपक्खस्स - उत्पाद पर्याय की अपेक्षा से उभयारम्भा -- स्व और पर दोनों के लिए हिंसा करने वाला उवसग्ग- उपसर्ग, साधना मार्ग में देव, मनुष्य आदि द्वारा दिए जाने वाले कष्ट ऊणी— न्यून, कम ऊणोदरी --- आहार, उपकरण, कषाय आदि की अल्पता वाले मनुष्य जो सरल और बुद्धिमान होते हैं। ऋजुसूत्रनय ---- केवल वर्तमान को ग्रहण करने वाला अभिमत एकभविक - जीव को अगले जन्म में जिस गति में उत्पन्न होना है उससे पहले भव में उस अपेक्षा से वह एकभविक कहलाता है। एकांत बाल- अज्ञानी, मिथ्यात्वी एवंभूत - जिस समय जो तत्त्व जैसा होता है, उसे उसी रूप में स्वीकृत करने वाला अभिमत एषणा- शुद्ध आहार की गवेषणा एपीक मुनि के लिए कल्पनीय ओधिक सर्वसाधाणर ओज आहार -- जन्म के प्रथम समय में लिया जाने वाला आहार ऋजुजड़ - प्रथम तीर्थ कर के समय होने वाले मनुष्य जो और अविकसित होते हैं ऋजुप्रज्ञावंत - मध्यवर्ती बावीस तीर्थकरों के समय होने कषाय-रागद्वेष से रंजित परिणाम सेवाकार्य में नियुक्त मुनि औदारिक-स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न तिर्यञ्च और मनुष्य का शरीर करण- उत्तरगुण करण- जीव का विशेष प्रयत्न कर्म (कम्म ) - आत्मा की अच्छी या बुरी प्रवृत्ति द्वारा Jain Education International आकृष्ट पुद्गल समूह कर्मदलिक - कर्म वर्गणा कर्म-प्रकृति- कर्म परमाणुओं की स्वभाव-संरचना कलुस समावन्न - जिसकी बुद्धि का विपर्यय हो गया हो कल्प- - आचार की मर्यादा कल्पातीत आत्मानुशासित, जो सब प्रकार के कल्पबाह्य मर्यादाओं से मुक्त हैं कवल आहार -ग्रास रूप में किया जाने वाला आहार, यह मनुष्य और तिर्यञ्च के होता है कषाय-कुशील निर्य के पांच भेदों में एक जिसका आचार कषाय से कुत्सित होता है कपाय- समुद्घात – कषाय संवलित आत्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकालना काइया - शरीर की प्रवृत्ति से होने वाला कर्म बन्ध काउस्सग - शरीर की सार-सम्भाल छोड़ना कापोत - अशुभ लेश्या का एक प्रकार काय गुप्त शरीर का संवरण करने वाला काय भवस्थ माता के गर्भ में स्थित अपने ही शरीर में उत्पन्न जीव -- कुडव - बड़प्पन कुत्रिकापणीन पृथ्वि और पाताल लोक की सभी वस्तुएं जहां उपलब्ध हों, वह दूकान कृष्ण लेश्या - अशुभ लेश्या का एक प्रकार कंखपओसे – प्रथम शतक के तीसरे उद्देशक का नाम, जिसमें केवल ज्ञान - मूर्त-अमूर्त सब पदार्थों का साक्षात् कराने अन्य मत की वांछा का विवेचन है। वाला अतीन्द्रिय ज्ञान कंखामोहणी मोहनीय कर्म की एक प्रकृति जिसके उदय 1 से अन्य मत की अयथार्थ बातें भी अच्छे रूप में दिखाई देती है कंदपिक—कुतूहलकारी कडाइ स्थविरकृतयोगी तपस्वियों को प्रत्युपेक्षणा आदि ४२६ भगवती-जोड़ काय समित- शरीर की सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला कार्मण (शरीर ) - कर्म शरीर, सूक्ष्म शरीर काल समय किव्विसिय अवर्णवादी केवल दर्शन-मूर्त अमूर्त सव पदार्थों का साक्षात् कराने वाला अतीन्द्रिय दर्शन केवली (केवल ज्ञानी ) - सर्वज्ञ केवली समुद्घात - केवली के वेदनीय और आयुष्य कर्म के समीकरण के लिए होने वाला समुद्घात For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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