Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 465
________________ लेश्या-मनोवृत्ति, पुद्गल द्रव्य के सहयोग से होने वाला वैक्रिय-शरीर-देव और नारक भव में सहज प्राप्त होने जीव का संक्लिष्ट तथा असंक्लिष्ट विचार वाला शरीर लोच-जैन मुनि के आचार का एक अंग, हाथों से केश वैक्रिय-समुद्घात-वैक्रिय लब्धि का प्रयोग उखाड़ना वैमानिक-ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न होने वाले देव वकुश-संयम में अतिचार के धब्बे लगाने वाला निग्रन्थ व्यंतर-भूत, पिशाच, यक्ष आदि निम्न श्रेणी के देव वक्रजड़--अन्तिम तीर्थकर के समय होने वाले व्यक्ति, जो व्यवहार नय-लोक प्रसिद्ध अर्थ का संवादी अभिमत मायावी और अविकसित होते हैं व्रत (प्रतिमा)--श्रावक की दूसरी प्रतिमा वच जोगी-वचन का प्रयोग करने वाला वचन गुप्त-वाणी का संयम करने वाला शंका-लक्ष्य और उसकी पूर्ति के साधनों में संदेह बचन-समित-वाणी की सम्यक् प्रवृत्ति करने वाला शब्दनय—शब्दग्राही अभिमत वनऋषभ नाराच संघयण---सर्वाधिक सुदृढ़ अस्थियों को शरीर-जो सुख-दुख की अनुभूति का साधन है संरचना शरीर पर्याय (पर्याप्ति)-शरीर का निर्माण बट्ट-गोल शुक्ल ध्यान-आत्मा की समाधि अवस्था, निर्विकल्प समाधि वर्गणा–सजातीय पुद्गल-समूह की स्थिति वाउकाय-वायु के जीव शुक्ल पक्षी-अर्ध पुद्गल परावर्तन काल की निश्चित सीमा विउसग्ग-शरीर के प्रति निस्पृहता, शरीर की प्रवृत्ति का में मुक्त होने वाला जीव परित्याग शुभ लेश्या-शुभ अध्यवसाय विशेष विगम-विनाश शुभ लेसी-शुभ लेश्या वाला जीव विगयपक्खस्स–विनाश की अपेक्षा से शून्यकाल-सातों नरक भूमियों में से एक जीव वहां से विग्रह-गति-एक भव से दूसरे भव में जाते समय होने निकलकर पुनः वहां उत्पन्न होता है तब तक पूर्ववर्ती सब वाली वह वक्र गति जिसमें दो, तीन या चार समय जीव वहां से निकल जाते हैं—एक भी जीव शेष नहीं लगता है रहता वह काल शून्यकाल है विग्रह-गतिया-विग्रह गति से जाने वाले जीव वितिगिच्छा-लक्ष्य-सिद्धि में सन्देह करना श्रद्धा-घनीभूत इच्छा विपाक---कर्मों का फल श्रमणोपासक-श्रमणों को उपासना करने वाला विभंग अनाण-मिथ्यात्व अवस्था में होने वाला अतीन्द्रिय थावक-अणुव्रतों का पालन करने वाला गृहस्थ ज्ञान श्रुतकेवली- चतुर्दश पूर्वधर मुनि वियट्टभोइ-निरन्तर आहार करने वाला श्रुत ज्ञान-शास्त्र आदि के माध्यम से होने वाला ज्ञान विराधक--- स्वीकृत आचार का भंग करने वाला श्रुत देवत-श्रुत ज्ञान के अधिष्ठित देव वीतराग--- राग-द्वेष से सर्वथा मुक्त (चेतना) आत्मा श्रुतधर्म-आचारांगादि श्रुत की आराधना वीर्य-शक्ति श्रुति-अज्ञान-मिथ्यात्वी का ध्रुतज्ञान वीर्य-अंत राय–वीर्य का अवरोधक कर्म वीर्य लब्धि...वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से होने वाली सइंदिय-इन्द्रिय सहित शक्ति संक्रमण (संकम)-कर्म प्रकृतियों का परस्पर मेल होना वेद-पुरुष को स्त्री के प्रति, स्त्री को पुरुष के प्रति और संग्रह (नय)-वस्तु का अभेदपरक निरूपण करने वाला नपुंसक की दोनों के प्रति होने वाली अभिलाषा अभिमत वेदनीय कर्म-सुख-दुख के वेदन में हेतुभूत कर्म पुद्गल संघयण--अस्थियों की संरचना वेदनी-समुद्घात-बेदना-जनित तीव्र व्याकुलता से होने संचय-धान्य आदि अधिक समय टिकने वाले खाद्य पदार्थों वाला समुद्घात का संग्रह वैत्रिय-लब्धि-विक्रिया--विविध रूप निर्माण की शक्ति संजतासंजती-श्रावक ४३२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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