Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 457
________________ साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय दर्शन अवसर्पिणी काल -- काल चक्र का एक विभाग, जो क्रमशः हीयमान होता है अविग्रहगति गति एक भय से दूसरे भव में जाते समय एक ही समय लगे, वह गति 7 अविग्रहगतिया -- अविग्रहगति से जाने वाले जीव अविरति आन्तरिक तृष्णा, प्रत्याख्यान का अभाव अभासक नहीं बोलने वाला अभिगमण -- गुरु के सम्मुख उपस्थित होने की औपचारिक अविरति सम्यक् दृष्टि- चतुर्थ गुणस्थान में होने वाली दृष्टि विधि तथा चतुर्थ गुणस्थान का अधिकारी व्यक्ति अपवाद - विशेष विधान, सामान्य नियम में होने वाली छूट अपाय — निर्णयात्मक ज्ञान अप्रमत्त (संजती ) - सातवें गुणस्थान का मुनि अप्रासुक (अफासु )- अनभिलषणीय, सचित्त अभवसिद्धिय (अभव्य ) जिस जीय में मोक्ष जाने की योग्यता न हो अभिग्रह - विशेष संकल्प अभिग्रहधारी - विशेष प्रतिज्ञा धारण करने वाला अभिमुखनामजगोत्त--- जिस गति के आयुष्य का बन्धन किया हो उसमें अन्तर्मुहूर्त्त बाद उत्पन्न होने वाला जीव अभिविधि- वह मर्यादा जिसमें विभाजक सीमा रेखा भी साथ आ जाती है। अभ्याख्यान - दोषारोपण करना अभ्युपगम वेदना स्वीकृत वेदना, लुंचन, तपस्या आदि करने से होने वाली वेदना अमायी - अकषायी अयोगकेवली - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का निरोध असंजती-संयम रहित करने वाला केवली अरति परिसह-संयम के प्रति होने वाली वितृष्णा से विच लित नहीं होना अरिहंत चैत्य - छद्मस्थ तीर्थकर अरूपी -अमूर्त तत्व जिसमें वर्ण, रस, गन्ध स्पर्श न हो अर्थदण्ड-प्रयोजनवश की जाने वाली हिंसा अर्थागम - तीर्थकरों की मुक्त वाणी -- अमेथी-चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव और मुक्त जीव अलोक आकाश का वह भाग जिसमें केवल आकाश ही होता है अव्यवहार राशि - निगोद के जीव, जो निगोद को छोड़ दूसरी गति में कभी उत्पन्न न हुए हों अवती- व्रत या प्रत्याख्यान से सर्वथा रहित व्यक्ति अशुभ जोग— मन, वचन और शरीर की प्रवृति अशुभ लेश्या - आत्मा के अशुभ परिणाम अशुभ 'लेसी- -अशुभ परिणामों वाला व्यक्ति अन्याना नरकभूमियों में वर्तमान में जितने जीव हैं उनमें न कोई निकले और न कोई नया उत्पन्न हो, अर्थात् वहां जितने जीव हैं उतने ही बने रहें, वह काल उन नारक जीवों की अपेक्षा अशून्यकाल है। अरा (आरा ) - काल चक्र का एक विभाग अरिहंत (अरहंत, अर्हत ) - सर्वातिशय सम्पन्न, धर्मतीर्थ के असन्निभूत—मिथ्यात्वी प्रवर्तक अवगाहणा-- शरीर परिमाण अवग्रह - इन्द्रिय और मन के द्वारा होने वाला सामान्य ज्ञान अवग्रह-आज्ञा अवधि (ज्ञान) - अवधानं अवधिः - चैतसिक एकाग्रता से प्राप्य, मूर्त पदार्थों को साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय ज्ञान अवधि दर्शन - मानसिक एकाग्रता से प्राप्य मूर्त पदार्थों को ४२४ भगवती जोड़ Jain Education International असंवुडो - असंवृत, जिसके आश्रव द्वार अवरुद्ध नहीं हुए हैं असंसार - मुक्त जीव असणभूत-अपर्याप्त असन्नि मनरहित जीव असातावेदनी - कष्ट की अनुभूति कराने वाला कर्म अस्थिर असासत अशाश्वत, असूझतो मुनि के लिए अकल्पनीय पदार्थ असेच गुणस्थान की प्राप्ति अस्तिकाय — प्रदेशों का समूह अस्थितकल्पिक - मध्यवर्ती तीर्थकरों के शिष्य, जिनके लिए पाकल्प आदि छह ऐच्छिक होते हैं अहिकरणिया (अहिगरणि) - शस्त्र के निमित्त से होने वाला कर्मबन्ध - अहिगरण - पाशबन्धन का निर्माण करने से होने वाला कर्मबन्ध आउली - विस्तार आगम - जैन शास्त्र आगार - छूट For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474