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अंगार -- साधु के भोजन का एक दोष-खाद्य की प्रशंसा
करते भोजन करना हुए
अंतक्रिया - मोक्ष
पारिभाषिक शब्दानुक्रम
अंत-प्रान्त - बचा खुचा बासी भोजन
अंत दो समय से अड़तालीस मिनिट का मध्यवर्ती
समय
अंतेवासी - शिष्य
अकरणवीर्य-लब्धि रूप शक्ति
अकषायी - कषायमुक्त आत्मा
अकाम निर्जरा मोक्ष के लक्ष्य बिना की गई तपस्या से होने अनर्थदण्ड -- निष्प्रयोजन की जाने वाली हिंसा
वाला कर्मक्षय
अगुरुलघु - जिसमें हल्कापन और भारीपन न हो, जैसे
आकाश
अनशन - निराहार रहना, यह सावधिक और निरवधिक दोनों प्रकार से होता है। अनाचार - दोष सेवन
अचरिम (अचर्म ) -- जिसकी जन्म-परम्परा का कभी अन्त अनानुपूर्वी — व्युत्क्रम, जिसमें किसी प्रकार का क्रम न हो नहीं होता
अनिहारिम -- ऐसे स्थान में अनशन करना, जिससे शव को बाहर न निकालना पड़े
अचित्त - निर्जीव
अल-व-रहित
अनुभाग (कर्म) – जिनका वेदन फलदान के रूप में निश्चित
अजीव - चेतना शून्य पदार्थ
है
अजोगी - जिसके मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति नहीं अनुभाग बन्ध-- तीव्र, मन्द आदि रस रूप में कर्मों का होती
विपाक
अज्ञान - मिथ्या दृष्टि युक्त ज्ञान
अट्ठमभक्त (अष्टम भक्त ) - तीन दिन का उपवास
के समय अणिदिय- इन्द्रिय रहित
अतिचार - स्वीकृत साधना का अतिक्रमण अदत्त - चोरी
अद्धाकाल - समय
अधर्मास्तिकाय स्थिति सहायक तत्त्व
अध्यवसाय – सूक्ष्म विचार
अनंतकाय - एक शरीर में रहने वाले अनंत जीव
अनंत संसार - जिस जीव को अन्तहीन काल तक संसार में परिभ्रमण करना है।
अट्ठिय कल्पी ——–देखें अस्थितकल्पिक
अढ़ाई द्वीप जम्बूद्वीप, धातकी खंड और अर्ध पुष्करद्वीप अणगार -- गृहत्यागी मुनि
अणागार (उपयोग दर्शन सामान्यग्राही अवबोध अणागारोवउत्त-- सामान्य अवबोध करने वाला अणाभियोगिक उच्च कोटि के देव
अगाभोग अनुपयोग, आकस्मिक रूप से
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अणारंभा (अणारंभी ) — अहिंसक, हिंसा न करने वाला अणाहारिक जीव जिस समय आहार ग्रहण नहीं करता, जैसे मृत्यु के बाद अन्तराल गति में होने वाली वक्र गति
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अनुयोग - व्याख्या
अनेषणीक मुनि के लिए अकल्पनीय अन्यतीर्थी- अन्य मतावलम्बी
अप (का) के जीव
अपक्रमण सम्यक्त्व आदि उत्तम गुणों से हीन होना अपच्चकखाणिया-अव्रत से होने वाला कर्मबन्ध
अपडिकम्मा- प्रायोपगमन नामक अनशन, जिसमें शरीर की
सार-संभाल नहीं की जाती
अपडिसेवी - दोष का सेवन न करने वाला मुनि
अपर्याप्त - जिस जन्म में जितनी पर्याप्तियां प्राप्त करनी हों, वे जब तक प्राप्त न हुई हों
अपवर्तनकरण - जीव का वह प्रयत्न जिससे कर्मों की स्थिति में ह्रास होता है
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परिशिष्ट ४२३.
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