Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 425
________________ ४५. ४६. ४७. ४८. ४६. ५०. ५१. ५२. ५३. ५४. ५५. ५६. ५७. एतो दवियो जीव तेही नहि बंधे पाप अतीव मोह कर्म नो योगोदी रं मांय वासुदेवी बल थी अघ न बंधाय, बल क्षयोपशम कर्म जिको अंतराय, तेहनां वीर्य - लद्धी थी पाय, ते बल थीणोदी पिण जाण, दर्शणावरणी कर्म बंध उदय थी। अर्ध बल । भाव छै । Jain Education International - क्षयोपशम थकी । उज्जल जीव इम ॥ थी । उदय ते तेही पण पहिछाण, कर्म तणो बंध है नयी ॥ थीणोदी रं मांय, मोह कर्म नां उदय सावज किरतब धाय, अघ न कर्ता तिम दर्शन में देख कर्म तगांज उदय जे विपरीत विशेख, ते आश्रयी ए चक्षू दर्शन होय, दर्शणावरणी कर्म क्षयोपशम थी जोय, ते तो उज्जल जीव दिशा- मूढ अवलोय, अवलीय पूरव ने जारी उदय भाव ए जोय, पिण क्षयोपशम-भाव पक्ष में रोग, बे चंदा देखे रोग प्रयोग, तिम विपरीत चक्षु रोग मिट जाय, तठा पर्छ देखे एहिं जुदा कहा रोग अने यल उदय-भाव छै रोग, चक्षु क्षयोपशम ए बिहुं जुदा प्रयोग, तिण विध ए पिण क्षयोपशम भाव, विभंग नों दर्शण विपरीतपणों कहाव, उदय-भाव कहिजै ते मार्ट इहां एम दाख्यो दर्शण विपरीतपणंज तेम पिण ए दो ते ने थी । खे ॥ थी। कथन ॥ नां । ॥ पछिम । नहि ॥ प्रमुख । जानवो ॥ तिको नेव ते । भाव छै । जाणवो ॥ अवधि । तसुं ॥ विषै । जूजुआ' ।। ( ज० स० ) जाण देखें | ५८. *तिण अर्थे यावत् सुविशेखे, अन्यथाभावे आख्यो तोजो एह आलावो, मुनि समदृष्टि तणो हिव भावो ॥ ५६. हे भदंत अणगार सुभावित, संजम तप करि आत्म साबित मायी- समदृष्टि' ते जोय, अमायी- समदृष्टि कहै कोय ।। * लय- इण पुर कंबल कोइ य न लेसी १. जयाचार्य के सामने 'मायी सम्मदिट्ठी' पाठ मुख्य रूप से रहा और वैकल्पिक रूप में 'अमायी सम्मदिट्ठी' पाठ भी रहा। उन्होंने सम्यग् दृष्टि के तीनों आलापकों में 'मायी' पाठ को स्वीकार किया। भगवती के पाठ शोधन के लिए प्रयुक्त आदर्शो में 'अमायी' पाठ ही मिला । प्रस्तुत आगम के अनेक स्थलो में 'अमायी' सम्मदिट्ठी' पाठ मिलता है। पूर्वापर अनुसन्धान की दृष्टि से अमावी सम्मदिट्ठी' पाठ ठौक लगता है, किन्तु प्रस्तुत प्रकरण नाना रूप-निर्माण (माया) से सम्बद्ध है, इस दृष्टि से 'मायी' पाठ की सम्भावना को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता । ३६२ भगवती जोड ५८. से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं बुच्चइनो तहाभावं जाणइ पासइ, अण्णहाभाव जाणइ-पासइ । (०३।२३०) ५६. अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा अमायी सम्मदिट्ठी । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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