Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 423
________________ सोरठा अन्य रूप कू जाण, अन्य भाव कर विकल्पित । दिशा-मूढ जिम माण, पूरव नै मानै पछिम ।। १४. *से से दसणे विवरीए विवच्चासे, किहांइक एहवं दीस जासे। तिहां देखण में विपरीत तास, खेत्र विपरजय कर विप्रयास ।। १३. अन्यदीयरूपाणामन्यदीयतया विकल्पितत्वात्, दिग् मोहादिव पूर्वामपि पश्चिमां मन्यमानस्येति । (वृ०-५० १६३) १४. क्वचित् ‘से से दंसणे विवरीए विवच्चासे' ति दृश्यते तत्र च तस्य तद्दर्शनं विपरीतं क्षेत्रव्यत्ययेनेतिकृत्वा विपर्यासो-मिथ्येत्यर्थः। (वृ०-५० १६३) १५. अणगारे णं भंते ! भावियप्पा मायी भिच्छदिट्ठी १५. हिव दुजो आलावो कहिये, चित्त लगाई ने सांभलिय। हे भगवंत ! जिको अणगार, मायी मिथ्यादृष्टी धार ।। १६. जाव राजगृह विकुर्वी जेह, वाणारसी नै विष छै तेह। पशु प्रमुख नां रूप विशेखै, विभंग-अवधि करि जाण देखै? १७. हंता जाण देखे सोई, तं चेव जाव तास इम होइ। म्हैं वाणारसी विकुर्वी अनूप, जाणूं देखू राजगृह रूप ॥ १८. इप दर्शण नैज विष विपरीत, कोइक विभंग अज्ञानी संगीत। तिण अर्थे जाव अन्यथाभावो, जाण देख ए दूजो आलावो।। १३. हे प्रभ ! भावित-आत्म अणगार, माई मिथ्यादृष्टि धार । वीरियलब्धी- वैक्रिय-लद्धी, विभंग-अनाण-लद्धी प्रसिद्धी ।। २०. वाणारसी नगरी प्रति जोय, तथा राजगृह प्रति अवलोय। तथा बिह नै विचालै विशेष, विकुवै इक महाजनपद देश ।। २१. वाणारसी नगरी प्रति जोय, तथा राजगह प्रति अवलोय । तथा बिहं बिच जनपद देश, विहं जाण देखै पूछेस ? २२. हंता गोयम ! जाण देखै, तथाभाव प्रति स्यू प्रभु ! पेखे ।। अन्यथाभाव प्रतै ते जोय, जाणै देखै प्रश्न ए सोय? १६. जाव रायगिहे नगरे समोहए, समोहणित्ता वाणा रसीए नयरीए रूवाइं जाणइ-पासइ? १७. हंता जाणइ-पासइ । (श० ३।२२५) त चेव जाव तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं वाणारसीए नयरीए समोहए, समोहणित्ता रायगिहे नगरे रूवाइजाणामि-पासामि। १८. सेस दसण-विवच्चासे भवति । से तेणठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-नो तहाभावं जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाण इ-पास। (श०३१२२६, २२७) १६. अणगारे ण भते ! भावियप्पा मायी मिच्छदिट्ठी वीरि यलद्धीए वेउव्वियलद्वीए विभंगनाणलद्धीए २०. बाणारसिं नरि, रायगिह च नगर, अंतरा एगं महं जणवयग्गं समोहए, २१. समोहणित्ता वाणासि नगरि रायगिहं च नगर अंतरा एगं महं जणवयग्गं जाणति-पासति ? २२.हंता जाणति-पासति। (श० ३।२२८) से भंते ! कि तहाभाव जाण इ-पासइ? अण्णहाभावं जाण इ-पासइ? २३. गोयमा ! नो तहाभाव जाणइ-पासइ, अण्णहाभावं जाण इ-पासइ। (श०३।२२६) २४. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्च इ--नो तहाभाव जाणइ पासइ ? अण्ण हाभाव जाण इ-पासइ ? २५. गोयमा ! तस्स खलु एवं भवति--एस खलु वाणारसी नगरी, एस खलु रायगिहे नगरे, एस खलु अंतरा एगे महं जणवयग्गे, २६. नो खलु एस महं वीरियलद्धी उब्बियलद्धी विभंगनाण लद्धी इड्ढी २७. जुती जसे बले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमण्णागए २३. जिन कहै तथाभाव प्रति त्यांही, वस्तू जाण देखै नांही। अन्यथाभाव ते विपरीत जाणी, ते प्रति जाण देखै अनाणी।। २४. किण अर्थे प्रभ ! भाख्यो एह, तथाभाव प्रति नहि जाणह। अन्यथा भावे जाण देखै ? हिव जिन उत्तर दै सुविशेखै ।। २५. ते अन्यतीर्थी एहवं मानेह, वाणारसी निश्चै छै एह। निश्चै एह राजगृह न्हाल, इक महाजनपद एह विचाल ।। . लखार २६. ए वीर्य-लब्धि निश्चै नहि म्हारी, नहि मुझ वैक्रिय-लब्धि उदारी। विभंग-अनाण तणी पिण लद्धी, ते पिण नहिं छै म्हारी ऋद्धो ।। २७. कांति अनै जश हेतु सार, बल वीरिय नै पुरुषाकार। प्राक्रम लाधो पाम्यो उदारो, सन्मुख हुओ ते नहिं म्हारो।। ___ *लय-इण पुर कंबल कोइ य न लेसी ३६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational ducation Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474