Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 433
________________ सोरठा जाव शब्द में जाण, पन्नवण सूवे धुर पदे । पेख्या पाठ पिछाण, कहियै तिण अनुसार थी। दक्षिण दिशि नों वाय, बलि उत्तर दिशि नों कह्यो। ऊंची दिशि नो ताय, बलि नीची दिशि नों पवन ।। तिरछी दिशि नों वाय, विदिशि तणो वायू वलि । वाउब्भामा ताय, अनवस्थित ए स्थिर नहीं।। वाउ-उक्कलिया जेह, उक्कलि नै पड़तो छतो। वाज वायू तेह, उदधि उत्कलिकावत् तिको ।। वायमंडलिया ताय, मंडल नै आकार जे। फुन उक्क्रलिया - वाय, रहि रहि नै वाजै तिको ।। ७२. दाहिणवाया इवा, उदीणवाया इवा, उड्ढवाया इवा, अहोवाया इवा, ७३. तिरियवाया इवा, विदिसीवाया इवा, बाउब्भामा इ वा, इह 'वातोद्भ्रामाः' अनवस्थितवाताः । (वृ०-१० १६६) ७४. वाउक्कलिया इवा, 'वातोत्कलिकाः' समुद्रोत्कलिकावत् । (वृ०-५० १६६) ७५. वायमंडलिया इ वा, उक्कलियावाया इवा, 'वातमंडलिका' वातोल्यः' 'उत्कलिकावाताः' उत्कलिकाभिर्ये वान्ति। (बृ०-५० १६६) ७६. मंडलियावाया इवा, गुंजावाया इवा, मण्डलिकावाता: मण्डलिकाभिर्ये वान्ति ‘गुजयाताः' गुञ्जन्तः सशब्द ये बान्ति । (वृ०-५० १६६) ७७. झंझावाया इवा, 'झञ्झावाताः' अशुभनिष्ठुराः। (वृ०प० १६६) ७८. गामादाहा इ वा, जाव सणि सदाहा इवा, अथानन्तरोक्तानां ग्रहदण्डादीनां प्रायिकफलानि दर्शयन्नाह (वृ०-५० १६६, १६७) ७६. पाणक्खया, जणक्खया, धणक्खया, कुलक्खया, बलि मंडलिका - वाय, ए वातोली रूप जे। गुंजा - बाय कहाय, करतो गुंजारव शबद ।। झंझावायू ताय, अनिष्ट असुभज आकरा। ए सगलाइ वाय, जाव शब्द में आखिया ।। ७८. *ग्राम जाव सन्निवेस नों, दाह हवै अधिकाय। ग्रह दंडादिक जे कह्या, तेहन रे हिव फल कहुं प्राय ।। प्राण क्षय बल क्षीण हुवै, जण धण कुल क्षय होय । मनुष्य धन कुल क्षय हुवै, ग्रह दंडादिक नो रे ए फल जोय ।। कष्ट भूत आपद पडै, पापात्मिक अनार्य। तथा आगमन अनार्य तणो, ए सरिखा रे बलि अन्य कार्य ।। ८०. ८१. ए सहु शक्र देवेंद्र नां, देव राजानां ताहि। सोम महाराजा तणे, नहीं छै रे ए अणजाण्या ताहि ।। ८२. ते अणजाण्या नहीं तसं, उन्मान तणी अपेक्षाय । अणदेख्या नहीं तेहन, प्रत्यक्ष नी रे अपेक्षाय ताय ।। ८०. बसणभूया मणारिया ये चान्ये एतद्व्यतिरिक्तास्तत्प्रकाराः-प्राणक्षयादितुल्याः 'व्यसनभूताः' आपद्रूपाः 'अनार्याः' पापात्मकाः । (वृ०-प० १९७) ८१.जे यावण्णे तहप्पगारा ण ते सक्कस्स देविंदस्स देवरण्णो सोमस्स महारण्णो अण्णाया ८२. अदिट्ठा 'अण्णाय' त्ति अनुमानतः 'अदिट्ठ' त्ति प्रत्यक्षापेक्षया । (वृ०-प० १९७) ८३. असुया अमुया 'असुय' त्ति परवचनद्वारेण 'अमुय' त्ति अस्मृता मनोऽपेक्षया । (०-६० १६७) ८४. अविण्णाया, तेसि वा सोमकाझ्याणं देवाणं । (श० ३।२५३) 'अविण्णाय' त्ति अवध्यपेक्षयेति। (वृ०-प०१९७) ३. पर वचने द्वारे करी, अणसुणिया नहि कोय। अस्मति असमरण करि नहीं, मन नी रे अपेक्षाय जोय ।। ५४. आवशात अविज्ञातपणे नहीं सोम रै, अवधि तणो अपेक्षाय । तथा सोम नी जाति नां, तेहनै रे अजाण्यादि नाय ।। * लय-रावण राय आशा अधिकी अथाय ४०० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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