Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 442
________________ ६८. एमहिड्ढीए जाव महाणुभागे वेसमणे महाराया। (श० ३।२७०) सेवं भंते ! तेवं भंते ! ति। (श० ३।२७१) एहवो महाऋद्धिवान छै, जाव कुबेर महाराय। सेवं भंते ! सेवं भंते ! कहै, गोयम हरष सवाय ।। अर्थ अंक पैंतीस नों, एकोतरमी ढाल । भिक्षु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय-जश' गण गुणमाल ।। तृततीयशते सप्तमोद्देशकार्थः ।।३।७।। ढाल : ७२ १. देववक्तव्यताप्रतिबद्ध एवाष्टमोद्देशकः ।(वृ०-५० २०१) २. रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी सप्तम उद्देशै कही, देव वारता देख । अष्टम उद्देशा विषै, तेहिज बात विशेख ।। नगर राजगह नै विर्ष, यावत् करता सेव । बोल्या गोयम गणहरू, अलगो करि अहमेव ।। *जिन वाण भली, दूध मांहै जाणे शाकर मिली। जिन वाण भली, तीर्थ चिहुं केशर-क्यारी खिली। जिन वाण भली, च्यार तीर्थ हद रंगरली।। (ध्रुपदं) ३. हे प्रभु ! असुर कुमार ने जाण, देव किता कहियै अगवाण ? ४. अधिपति स्वामीपणे थइ सोय, जाव किता विचरै सुर जोय? ५. श्री जिन कहै दश देव सोहंत, अधिपतिपणे यावत् विचरंत ।। चमर असुर इंद्र असुर नों राय, सोम जम वरुण बेसमण ताय ।। ७. बली वेरोचन-इंद्र विशिष्ट, सोम जम वरुण वेसमण इष्ट' ।। ३, ४. असुरकुमाराणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेबच्चं जाव विहरंति? ५. गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा६. चमरे असुरिदे असुरराया, सोमे, जमे, वरुणे, बेसमणे, ७. बली वइरोयणिदे वइरोयणराया, सोमे, जमे, बेसमणे, वरुणे। (श० ३।२७२) ८, ६. नागकुमाराणं भंते ! देवाणं कइ देवा आहेवच्च जाव विहरंति? १०. गोयमा ! दस देवा आहेवच्चं जाव विहरंति, तं जहा११. धरणे णं नागकुमारिदे नागकुमार राया, १२. कालवाले, कोलवाले, सेलवाले, संखवाले, हे प्रभु ! नागकुमार ने जाण, देव किता कहिये अगवाण? ६. अधिपति स्वामीपणे थइ सोय, जाव किता विचरै सूर जोय? १०. श्री जिन कहै दश देव सोहंत, अधिपतिपणे यावत् विचरंत ।। ११. धरण है नागकुमार नों इंद, दक्षिण दिशि नों एह दीपंद ।। १२. काल वाल कोलवाल नीहाल, शेलवाल नै बलि शंखवाल ।। *लय-बाबा किशनपुरी तो विण मंढिया उजड़ी पड़ी १. प्रस्तुत पद्य के सामने अंगसुत्ताणि भाग २ का पाठ उद्धृत है, पर प्रस्तुत पद्य के साथ उसका मेल नहीं है। जयाचार्य ने भगवती के आदर्शों के पाट का अनुवाद किया है। वृत्तिकार ने भी आदर्शगत पाठ की व्याख्या की है। अंगसुत्ताणि का पाठ वृत्तिकार द्वारा पाठान्तर रूप में उल्लिखित है। जयाचार्य ने भी इस पाठान्तर का संकेत किया है। ढा० ७२ गा० ५४-५६ और उसके सामने का वृत्ति-पाठ। भगवती वृत्ति का पाठान्तर तथा स्थानांग ४/१२२ का पाठ परस्पर संवादी है। इस दृष्टि से भगवती का मूल पाठ वही स्वीकृत है और प्रस्तुत प्रकरण में वही पाठ उद्धृत किया गया है। श० ३, उ०७, ८, ढा०७१, ७२ ४०६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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