Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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७६ वृत्ति विका सनतकुमार, प्रमुख युगम ७७. पूर्व इंद्र तणी अपेक्षाय, उत्तर इंद्र ७८. दक्षिण उत्तर नो लोकपाल तीजा ने ठामै ७६. चोथा नं ठामैं तोजो ताय, बहुश्रुत तास ८०. प्यार कल्प खेहला इंद दोष, विमानिक नां
८१. सेवं भंते ! सेवं भंत !, इम भाखे गोतम घर खंत ॥
टीका
८२. पुस्तकांतर मांय, तेनों प्रथम बतायो व्याय ॥ ८३. बनि सूत्र नों हेतु जे सांभलज्यो भवियण ! घर नेह ॥ ८४. ठाणांग रै चउ ठाण, प्रथम उड़े से कही दम वाण ॥ ८५. चमर असुरिन्द्र नाचि लोकपाल, सोम जम वरुण बेसमण म्हाल ॥ ८६. एवं बली नैं पिण है च्यार, सोम जम वेसमण वरुण सार ॥ ८७. नागि धरण ने चिरं लोकपाल, कालवाल ने दूजो कोलवाल || ८८. सेलवाल चोथो संखवाल, दक्षिण दिशि नो एह निहाल |
नागद्र भूतानंद ने प्यार कालवाल कोलवाल उदार ॥ ६०. तोजो शंखवाल चउथो सेलवाल, उत्तर दिशि नां ए चिउं भाल ॥
प्रत्यक्ष |
सुप्रभ
सुधार ।।
१. सुवन्न इंद्र वेणुदेव नैं प्यार चित्र अर्न यति विचित्र उदार ।। ६२. चित्रपक्ष चउथो विचित्रपक्ष, दक्षिण दिशि नां एह सुदक्ष ॥ १३. सुवन्न इंद्र वेणुदास ने प्यार चित्र अनै विचित्र प्रकार ॥ २४. विचित्रपक्ष चउथो चित्रपक्ष उत्तर दिशि नए ५. विज्जु -इंद्र हरिकंत नैं च्यार, प्रभ अनैं ९६. प्रभकंत ने सुप्रभकत, दक्षिण दिशि मां ए युतिमंत ।। ६७. विज्जु - इंद्र हरिसह नैं प्यार, प्रभ अनं सुप्रभ प्रकार || सुप्रभवंत अने प्रभकंत दिशि उत्तर न ए दीपंत ॥ २९. अग्नि-इंद्र अग्निसीह में प्यार ते अने तेउसीह १००. ते उकंत चउथो ते उप्रभ, दक्षिण दिशि नां एह प्यार, ते अन ते सोह तेउकंत उत्तर दिशि नां ए पुग्यवंत ॥ च्यार रूय अनैं रूयंस रूपप्रभ, दक्षिण दिशि नां एह सुलभ । विशिष्ट ने च्यार, रूय अन रूयंस चटयो रूपमंत उत्तर दिशि नां ए १०७. उदधिद्र जलकंत ने प्यार, जल में पति जलस्य
विचार ।।
सुलभ ।।
उदार ॥
१०१. अग्नि-इंद्र अग्निमाण १०२. प्रभ
चो
उदार ।।
१०२. द्वीप- इंद्र पूर्ण १०४. रूपकंत
१०५ द्वीप - इंद्र १०६. रूयप्रभ
चो
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मुरलोके सार ॥ तणां दिग्राय ॥ चडयो म्हाल ॥
*
,
विचारै न्याय ||
इस दस होय ||
प्रकार ||
ओपंत ।।
प्रकार ॥
१०८. जलत में चडवो जलप्रभ, दक्षिण दिशि नो एह सुलभ ॥
बलि जलरूप उदार ॥ दिशि न ए पुग्यवंत ॥
१०६. उदधि इंद्र जलप्रभ ने च्यार, जल नें ११०. जलप्रभ ने उधो जलकंत, दक्षिण १११. दिशा-इंद्र अभिवगइ च्यार, तुरियगति ४१२ भगवती-जोड़
विप्रगति उदार ॥
७६. सनत्कुमारादन्द्रमेषु ।
७७-७१. पूर्वेन्द्रापेोत्तरेसम्बन्ध
(१००१०२०१) लोकपालानां
तृतीयचतुर्थयोर्व्यत्ययो वाच्य इत्यर्थः । ( वृ० प० २०१ )
८० दन्द्रा वाच्या, अन्तिमे देवलोकचतुष्टये शक्रादयो इन्द्रयभावादिति ।
८१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।
( वृ०-५० २०१) (श० ३।२७८)
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