Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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६४. सूक्ष्म - इरियावहि बंधै तिका, कर्म साता-वेदनी सूसंधो।
उपशांत-मोह क्षीण-मोह रे, सजोगी केवली रे बंधो॥ ६५. ए तीन गुणठाण वीतरागपणे, सक्रियपणां थी सोयो। ___ साता - वेदनी कर्म नों, बंध होब अवलोयो ।।
६४, ६५. 'सुहुम' त्ति सूक्ष्मबन्धादिकाला 'ईरियावहिय' त्ति
ईर्यापथो—गमनमार्गस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी केवलयोगप्रत्ययेति भावः 'किरिये' ति कर्म सातवेदनीयमित्यर्थः 'कज्जइ'त्ति क्रियते भवतीत्यर्थः, उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणगुणस्थानकत्रयवर्ती वीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात् सातवेद्यं कर्म बध्नातीति भावः।
(वृ०-प०१८४) ६६. सा पढमसमयबद्धपुट्ठा, वितियसमयवेइया, ततिय
समयनिजरिया। बद्धा कर्मतापादनात् स्पृष्टा जीवप्रदेशः स्पर्शनात् ।
(वृ०-५० १८४) ६७. सा बद्धा पुट्ठा उदीरिया वेइया निज्जिण्णा सेयकाले
अकम्म वावि भवति।
६६. पहिलै समय बंध क्रिया तिका, जीव - प्रदेशे ते फर्शायो।
बीजै समय उदय ते वेदवू , तीजै निर्जर दूर थायो।।
६७. पछै आगमिया काल विर्ष ए, कर्म रहित पिण होई।
एहवी बात कही छै सूत्रे, इहां वृत्तिकार कह्यो सोई ।।
सोरठा तठा पछै अवलोय, अकर्म आगामिक अद्धा। इण वचने करि होय, अकर्मता चोथै समय ।। यद्यपि तिहांज ख्यात, तृतीय समय अघ निर्जरै। इण वचने करि थात, अकर्मता तीजै समय ।। द्वितीय समय रै माय, भाव कर्म अति निकट थी।
तीजै समय कहाय, द्रव्य कर्म सुद्ध द्रव्य नय ।। ७१. *तिण अर्थ मंडियपुत्र ! इम कह्य, ज्यां लग जीव सदा सप्रमाणो।
न कंपे जाव तेहनै अंते, अंत-क्रिया हवै जाणो ।।
६८. ततश्च 'सेयकाले' त्ति एष्यत्काले 'अकम्मं वावि' त्ति अकर्माऽपि च भवति।
(व०-प० १८५) ६६, ७०. इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्माकर्म भवति
तथाऽपि तत्क्षण एवातीतभावकर्मत्वेन द्रव्यकर्मत्वात् तृतीये निर्जीर्ण कर्मेति व्यपदिश्यते। (वृ०-५० १८५)
७१. से तेणठेणं मंडिअपत्ता ! एवं वुच्चइ-जावं च णं से
जीवे सया समितं नो एयति जाव अंते अंतकिरिया भव।
(श० ३।१४८)
सोरठा 'कह्यो इहां धर्मसी एम, जीव जिको हालै नहीं। अछ अजोगी खेम, अंत-क्रिया तेहिज करै ।। जोग मध्ये बे लंभ, सुभ अनैं बलि असुभ छ । सुभ जोगे अणारंभ, असुभ जोगे आरंभ छै ।। तिम हालतां नी बे जात, सुभ जोगे मुनि हालतो। अणारंभी पिण थात, अंत-क्रिया न करै तिको ।। असुभ जोगे हालत, तसं आरंभी पिण का। अंत-क्रिया न करत, ए तो प्रत्यक्ष ईज छै ।। सुक तृण अग्नि दहंत, तप्त कडाहे जल-बिंदु । शीघ्र विध्वंसज हंत, भस्म कर इम मुनि कर्म ।। द्रह में सछिद्र नाव, पाणी भर तल बूडिई। तिम मिथ्यात्वादि भाव, आश्रव द्वारज छिद्र सम।।
७७.
*लय--वाल्हा वारी रे अब लग
३७० भगवती-जोड
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