Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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८६.
६०.
६१.
६२.
६३.
९४.
६५.
६७.
वा०- ए अप्रमादी उपशम-श्रेणि चढ तिको जीव ग्रहिवो, जो आठमैं गुणठाण उपशम-श्रेणि चढतो प्रथम समय मरे तो पिण सातमैं गुणठाणे अप्रमत्तपणे अंतरह्यो मा जघन्य अंतर्मुहूर्त, इहां उपशम-श्रेणी चढ तिको अप्रमत्त ग्रह्यो । पिण अन्य अप्रमत्त ग्रहण न कियो ।
६.
25.
• वृत्तिकारक प्रमत्त अप्रमत्त, बेहं गुणठाणं लहै । कहै अन्य आचार्य काल ए सह छठे गुणठाणेज तं ॥ नाना बहु जीव आश्रवं छठा गुणठाणा रो कालो। सदा काल रहे सासतो, प्यार नियंठा निहालो । अप्रमत्त-संजती हे प्रभु! अप्रमत्त-संजमे वर्तमानो । सर्व काल अप्रमत्त तणुं रहे केतलं काल विछानो ? जिन भाखे काल अप्रमत्त तणो, इक जीव आश्री जोडो । अंतर्मुहू जघन्य थी, उत्कृष्टो देसूण पुव्व-कोडो । *हां वृत्तिकार का काल अप्रमत्त, अंतर्मुहूर्त्त रहै सही। अंतर्मुहूर्त मांहि न मरे, तेहथी ए जघन्य ही ॥ चूर्णिकार मत - प्रमत्त वरजी, संजती जे सर्व ही। प्रमत्त-भाव तिहां नहीं ||
अप्रमत्त कहियै तिणा नैं
६६.
명 उपराम श्रेण चढतो
मुहूर्त ने भीतर सही।
काल करतो छतो पार्म जपन्यकाल इतोज ही ।।
वहा
काल क अप्रमत्त तणुं हि सर्वकाल में जेह भावी भावांतर वर्षा गोयम प्रश्न करेह || १००. हे भवंत! इह विध कही, वीर नं गोयम बंदी। नमस्कार करिने बलि, इस बोल्या आनंदी ॥ १०१. हे प्रभुजी ! किंण कारणे, लवणोदधि जल रासी । चवदस आठम ने विषै अमावस्या पूर्णमासी ॥
३७२
काल उत्कृष्ट अप्रमत्त नों, देसूणों पूर्व कोड है । तेरमै गुणठाण गुणिये, वृत्ति थी ए जोट है । 'अप्रमत्त नाना जीव आसरी, सदा काम केवली रे न्यायो । सेवं भंते! सेवं भंते! कही, मंडियपुत्र ऋषिरायो ॥ वंदना नमस्कार करि वीर नैं संजम तप कर ताह्यो । आत्मा ने भावता यका, विचरं महामुनिरायो ।
"लय-पूज मोटा भांज तोटा + लय-वाल्हा वारी रे अब लग
भगवती-जोड़
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कोकिल प्रत्येकमन्तर्मुहुर्त्तप्रमाणे एव प्रमत्ता मत्तगुणस्थानके ।
(१०० १०५) (०२१४९)
६०. नाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा ।
६१. अप्पमत्त संजयस्स णं भंते ! अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालओ केवच्चिरं होइ ? ९२. मंडिअपुत्ता ! एवं जीवं पडुच्च जहणेणं अंतोमुहुत्तं, कोसेणं देणा पुथ्वकोडी
९३. 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति किलाप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्यान्तर्मुहूर्तमध्ये मृत्यु न भवतीति । ( वृ० प० १८५ )
६४. चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयतवर्जः सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते, प्रमादाभावात् । ( वृ०० १०५)
५.
जघन्यकालो लभ्यत इति ।
६६. देशोनपूर्व कोटी तु केवलिनमाश्रित्येति । ( वृ० प० १८५)
९७. नाणाजीवे पडुच्च सच्वद्धं ।
(श० ३।१५०) सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति भगवं मंडिअपुत्ते अणगारे ६८. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता सजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।
(स०] २०१५९)
९६. अथ सर्वाद्वाभाविभावान्तरप्ररूपणायाह
कालं कुर्वन् (१०-१० १०५)
( वृ०१० १०५)
१००. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं व्यासी
!
१०.
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सिणीसु
उण्णमा
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