Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 414
________________ ६५. जिम भाख्यो स्त्री रूप, भणवो तिह विधे । णवरं इतो विशेष छै ।। चक्रवाल पिण एक, बे चक्रवाल पिण । ए गाडा - पेडु अछ । जग गिल्लि पिण जाण, थिल्लि सेवका। संदमाणी ते पालखी। १८. ए सर्व रूप परिणमाय, गति बहु जोजने। स्त्री रूप जिम ए अखी।। ६६. अर्थ चोतीस न अंक, तेहन देश ए। ___ढाल पैसठमी निर्मली। १००. भिक्खु भारीमाल ऋषराय, तास प्रसाद थी। 'जय-जश' संपति रंगरली ।। ६५. जहा इत्थिरूवं तहा भाणियव्वं । (श० ३.१८०) नवरं ६६. एगओचक्कवाल पि दुहओचक्कवालं पि भाणियव्वं । (श० ३.१८१) ६७. जुन्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीया-संदमाणिया तहेव । (श० ३१८२) ६८. ततश्च युग्यगिल्लिथिल्लिशिबिकास्यन्दमानिकारूप सूत्राणि स्त्रीरूपसूत्रवदध्येयानि। (वृ०-५० १८८) ढाल : ६६ परिणत नां अधिकार थी, प्रश्न गोयम पूछत। नरक उपजवा योग्य प्रभु ! किण लेसे उपजंत ? जिन कहै जे लेश्या तणां, द्रव्य ग्रहण कर जेह । भावे परिणामे मरी, ते लेस्ये उपजेह ।। कृष्ण नील कापोत ए, बिहुं मांहिली एक। लेश विप इज ऊपज, नरके ए त्रिण पेख ।। भव नां प्रथम समय विषै, लेस्या नांव कोय। नावै चरम समय विषै, सर्व जीव नै जोय ।। १. परिणामाधिकारादिदमाह- (वृ०-५०१८८) जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएस उववज्जित्तए, से णं भंते ! कि लेस्सेसु उववज्जइ? २. गोयमा ! जल्लेस्साई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ, तल्लेस्सेसु उववज्जइ, 'परिया इत्त' त्ति पर्यादाय परिगृह्य भावपरिणामेन कालं करोति-म्रियते। (वृ०-प०१८८) ३. तं जहा-कण्हलेस्सेसु वा, नीललेस्सेसु वा, काउलेस्सेसु वा। ४. लेस्साहि सव्वाहि, पढमे समयम्मि परिणयाहिं तु । न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ।। लेसाहिं सव्वाहि, चरमे समयम्मि परिणयाहिं तु। न वि कस्सवि उववाओ, परे भवे अत्थि जीवस्स ।। (उत्तरज्झयणाणि अ० ३४ गा० ५८, ५६) ५. अन्तमुहुत्तम्मि गए, अन्तमुहुत्तम्मि सेसए चेव । लेसाहिं परिणयाहिं, जीवा गच्छंति परलोयं ।। (उत्तरज्झयणाणि अ० ३४ गा०६०) ५. अंतर्गत अंतर्मुहुर्त थाकत', लेश्या आवै ताय । परभव अंतमहत्तं लग, ते लेश्या रहिवाय ।। वा०---कृष्ण लेश्यावंत नारकी कृष्ण लेश्यावंत नारकी नै विष तथा पंचेंद्रिय तिर्यंचे जे लेश्यावंत नारकी नुं आयु बांध्यो हुई तेहनै अंतर्मुहूर्तायु थाकतै ते लेस्या १. शिविका २. शेष रहने पर श०३, उ०४, ढा०६५, ६६ ३८१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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