Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 396
________________ ११. प्रभु ! अहिकरणिया एह, कितै प्रकार कहेह ? हे मंडिपत्र ! द्विविध जिन इम भाखता।। १२. पूर्व नीपनां एकठा करत, तेह संयोजवू हुंत। __ आछे लाल, बलि शस्त्र नवा निपजावता। १३. पाउसिया पहिछाण, भेद किता जगभाण ! आछे लाल, द्विविध जिन इम वागरै।। १४. जीव-पाउसिया देख, जीव ऊपर करै धेष। हे प्यारे लाल, अजीव-पाउसिया अजीव ऊपरै ।। ११. अहिगरणिआ णं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता ! दुविहा पण्णता, तं जहा१२. संजोयणाहिगरणकिरिया य, निवत्तणाहिगरणकिरिया य। (श०३।१३६) संयोजन----हलगरविषकूटयन्त्राद्यङ्गाना पूर्वनिर्वत्तितानां मीलनं तदेवाधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया, निर्वर्तनं-असिशक्तितोमरादीनां निष्पादनं तदेवाधिकरण क्रिया निर्वर्तनाधिकरणक्रिया। (वृ०-५० १८२) १३. पाओसिआ णं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडि अपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा१४. जीवपाओसिआ य, अजीवपाओसिआ य (श०३।१३७) जीवस्य-आत्मपरतदुभयरूपस्योपरि प्रद्वेषाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव वा, अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद्या क्रिया (वृ०-प० १८२) १५. पारियावणिआ णं भंते ! किरिया कइबिहा पण्णत्ता? मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा--- १६. सहत्थपारियावणिआ य स्वहस्तेन स्वस्य परस्य तदुभयस्य वा परितापनादअसातोदीरणाद्या क्रिया परितापनाकरणमेव वा सा स्वहस्तपारितापनिकी। (वृ०-प० १८२) १७. परहत्थपारियावणिआ य । (श०३।१३८) १५. प्रभु ! पारितावणिया पेख, कितै प्रकार विशेख ? आछे लाल, द्विविध कहै त्रिभुवन-धणी ।। १६. सहत्थपरितावणिया सोय, स्व हस्ते करि जोय। हे मंडिपुत्र ! पीड करै निज पर भणो।। १७. परहत्थपरितावणिया पेख, पर हस्ते करि देख। हे नीके लाल, पीड करै निज पर तणे ।। १८. इम बे भेद पाणाइवाय, स्व कर बेहुं हर्णै ताय । आछे लाल, पर कर थी निज पर हणे ॥ १६. पूर्व क्रिया आख्यात, वेदन तेहथी थात। हे मंडिपुत्र ! ए बेहु अधिकार कहै अछ।। २०. पहिला क्रिया भगवान, पछै वेदना जान। ___ आछे लाल, कै पहिला वेदन क्रिया पर्छ ? २१. जिन कहै पहिला क्रिया जोय, पछै वेदन अवलोय । हे मंडिपुत्र! पहिला वेदना पछै क्रिया नहीं। २२. क्रिया-करणं ते जीव-व्यापार, तेहथी ऊपना कर्म तिवार। आछे लाल, तिण स कर्म नै पिण क्रिया कही। २३. अथवा क्रियते क्रिया-कर्म जाण, ए कही टीका में वाण। आछे लाल, हिवै क्रिया नां स्वामी भणी॥ २४. छै श्रमण निग्रंथ नै भदत ! क्रिया थी कर्म बंधत ? हे मंडिपत्र ! हंता अत्थि कहै त्रिभुवन-धणो।। १८. पाणाइवायकिरिया णं भंते! किरिया कइविहा पण्णत्ता? मंडिअपुत्ता ! दुविहा पण्णत्ता तं जहा-सहत्थपाणाइवायकिरिया य, परहत्थपाणाइवायकिरिया य (श० ३३१३६) १६. उक्ता क्रिया, अथ तज्जन्यं कर्म तद्वेदनां चाधिकृत्याह-- (वृ०-५० १८२) २०. पूवि भंते ! किरिया, पच्छा वेदणा? पूब्बि वेदणा, पच्छा किरिया? २१. मंडिअपुत्ता ! पुवि किरिया, पच्छा वेदणा । णो पुब्वि वेदणा, पच्छा किरिया। (श० ३।१४०) २२. क्रिया-करणं तज्जन्यत्वात्कर्मापि क्रिया। (वृ०-५० १८२) २३. अथवा क्रियत इति क्रिया कर्मैव...क्रियामेव स्वामि भावतो निरूपयन्नाह- वृ०-प० १८२) २४. अत्थि णं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कज्जइ? हंता अत्थि। (श० ३१४१) श० ३, उ० ३, ढा० ६३ ३६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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