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६. शेषक्रियाभेदसंग्रहार्थमाह
(वृ०-५० १८३)
हिव शेष क्रिया नां भेद नै, सग्रहण नै अर्थ कहोजे । तं तं भावं परिणमइ, ए पाठ नों अर्थ सुणीजै ।। ते ते भाव प्रत परिणमैं, वैसण ऊठण लेवो देवो। संकोचवो नै पसारणादिक, परिणाम प्रतै पामेवो।।
हंता मंडियपूत्र ! जिन भाखै, जीव सदा परिमाण सहीतो। कंपे जाव ते ते भाव नै परिणमै छैज वदीतो।। हे प्रभु ! ज्यां लग जीव तिको नित्य,समित जावपरिणाम। तिहां लग मरणते ते स्यं, अन्तक्रिया नै पामै ?
७. तं तं भावं परिणमइ?
उत्क्षेपणावक्षपणाकुञ्चनप्रसारणादिकं परिणाम यातीत्यर्थः।
(वृ०-५० १८३) ८. हंता मंडिअपुत्ता! जीवे णं सया समितं एयति जाव तं तं भावं परिणमइ।
(श० ३३१४३) ६. जावं च णं भंते ! से जीवे सया समितं जाव परिणमइ,
तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवइ? 'अंते' त्ति मरणान्ते।
(वृ०-५० १८३) १०. नो इणठे समठे।
(श० ३३१४४) 'अंतकिरिय' ति सकलकर्मक्षयरूपा। (वृत-प० १८३)
श्री जिन भाखै एह अर्थ ते, समर्थ नहीं छै ताह्यो। वृत्तिकार कहै 'सकल-कर्म-क्षय', ते अंत-क्रिया कहिवायो।
सोरठा ११. 'ठाणांग चौथे ठाण, पहिला उद्देशा मझे।
अंत-क्रिया चिउं जाण, प्रत्यक्ष देखो पाठ में ।। १२. त्यां चको सनतकुमार, तेहनै अंत-क्रिया कही।
सकल - कर्म - क्षयकार, इण लेखे शिव गति लही ।। तिहां का टीकाकार, चक्री सनतकुमार ने।
गयो तीजा कल्प मझार, एह अर्थ विपरीत छै॥ १. स्थानांग की मुद्रित वृत्ति में सनत्कुमार की अन्तक्रिया के सन्दर्भ में तीसरे कल्प का
उल्लेख नहीं है। वहां यही बतलाया गया है कि सनत्कुमार चक्रवर्ती भवान्तर में सिद्ध होंगे। वह पूरा प्रसंग इस प्रकार है-यथाऽसौ सनत्कुमार इति चतुर्थचक्रवर्ती, स हि महातपा महावेदनश्च स रोगत्वात् दीर्घतरपर्यायेण सिद्धः, तद्भवे सिद्धयभावेन भवान्तरे सेत्स्यमानत्वादिति ।
(स्थानांग वृ०-प०१७२) किन्तु आवश्यक-नियुक्ति में सनत्कुमार चक्रवर्ती के तीसरे स्वर्ग में उत्पन्न होने का उल्लेख मिलता है--- मघवं सणंकुमारा सणंकुमारं गया कप्पं ।
(आवश्यक-नियुक्ति गा० ४२३) उत्तराध्ययन की सुखबोधा वृत्ति में भी यही उल्लेख मिलता है।
(सुखबोधा पत्र २४२) जयाचार्य ने इस प्रसंग में समीक्षा करते हुए लिखा है
तिहां का टीकाकार, चक्री सनतकुमार ने।
गयो तीजा कल्प मझार, एह अर्थ विपरीत है। इस पद में तिहां शब्द का प्रयोग है। इसका सीधा अर्थ होता है-स्थानांग की वृत्ति में तीसरे कल्प में जाने का उल्लेख है। किन्तु स्थानांग की मुद्रित वृत्ति में यह उल्लेख उपलब्ध नहीं है। हो सकता है जयाचार्य के सामने इस उल्लेख वाली कोई प्रति रही हो।
दूसरा विकल्प यह है कि तिहां का अर्थ इस प्रसंग में करें तो उसके साथ आवश्यक-नियुक्ति और सुखबोधा के मत को उद्धृत किया जा सकता है।
श० ३, उ०३, दा०६४ ३६५
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