Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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३६. अथवा संबंधी श्वसुर कुलीन, परिजन ते दासादिस्व आधीन । सहु आदर दे अधिकाय, स्वामीपण जाणै छै ताय ॥ ३७. देवै सत्कार नै सनमान कल्याणकारी मंगलीक जान । देवता भी परे मुझ मान, वारू विनय करी सुविहान ३८. चित्त अहलादकारी विचार, म्हारी सेव करें इहवार ।
मुझ नैं त्यां लग श्रेय छै सोय, काले प्रगट प्रभात सुहोय ।। ३६. जाव जाज्वलमान समाज, रवि जगते करिबू ए काज
स्वयमेव पोतेईज सोय, काष्ठ नों पालो करिने जोय || ४०. विस्तीर्ण चिउँ आहार रंधाय मित्र व्याती निजग कहियाय ।
स्वजन संबंधी परिजन ताय, यां सगला ने बोलाय || ४१. ते माती प्रमुख परिजन ने विस्तीर्ण चि आहारज करने
वस्त्र गंध माला अलंकार, सत्कार सन्मान ने सार ||
४२. मित्र न्याती प्रमुख आगे सार, जेष्ठ सुत नै स्थापी घर भार । त्यां ने पूछी काष्ठपाल, वलि मस्तक मुंड करेय ।।
४३. प्रव्रज्या प्राणाम सुहाय, मुझ आदरवी श्रेय ताय । आदरिये छतं ते पवज्जा करिबू एवं अभिग्रह सका। ४४. कल्पै जावजीब लग जोय, छठ छठ निरंतर सोय । सूर्य साहमी ऊंची बाहु स्थाप, आतापन - भूमि ४५. छठ पारणे हय धरी ने आतापन भूमिका थी वली ने काष्ठपाव ग्रही ने ताहि, तामलिप्ती नगरी मांहि ॥
आताप ||
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४६. ऊंच नीच मझम कुल मांय, बहु घर भिख्या अटन कराय । शुद्ध उदन कूर इक अन्न, लेवू पिण शाकादिक तजन्न || ४७. ते कूर प्रतं एकवीस वार, पाणी करि पखाली ते आहार ।
तठा पर्छ आहार करिं मोय, इम चितवणा करी सोच ।। ४८ दूजै दिन प्रगटी प्रभा जान, जाव सूर्य उदय पिछान ।
पोते काष्ठपात्र करी ताय, विस्तीर्ण असणादिक रंधाय ॥
४९. कीधा स्नान अने बलिकर्म कीधा कोतुक तिलकादि मर्म । ए तो लौकिक हेते पिछान, तिम अन्य स्थान पिण जान ॥ ५०. दही द्रोव अक्षत मंगलीक दुःस्वप्न टालण तहतीक । यति परिघा वस्त्र प्रधान, मोल हवा ने हलका जान || ५१. एहवा आभरण करी अमीर, अलंकृत कियो है शरीर । भोजन-मंड बैठा समेला ॥
भोजन देला, सुख-आसन
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३६. परियणो आढाति परियाणाइ
श्वसुरकुलीना वा परिजनो— दासादिः । 'परिजानइ' त्ति परिजानाति स्वामितया । ( वृ०२०१६३) ३७. सकारेइ सम्माणेइ कल्लाणं मंगलं देवयं विणएणं
३८. चेइयं पज्जुवासइ, तावता मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए
३६. जाव उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयमेव दारुमयं पडिग्गहगं करेत्ता
४०. विउलं असण- पाण- खाइम साइमं उवक्खडावेत्ता, मित्तनाइ नियग-सयण संबंधि परियणं आमंतेत्ता, ४१. तं मित्त-नाइ नियग-सयण संबंधि-परियणं
विउलेणं असण- पाण- खाइम साइमेणं वत्थ-गंध-मल्लालंकारेण य गहरे सम्माता
४२. स्वमित-नाइनिधि-परिवार पुर जेठपुत्त कुटुंबे ठावेता मिलना-नियन-सय-संबंधि ---परिवर्ण जेठपुत्त आच्छिता, सदमेव दामपं डिगं गहाय मुंडे भवित्ता,
४३. पाणामाए पव्वज्जाए पब्वइत्तए । पब्वइए वि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि ४४. कप्पइ मे जावज्जीवाए छट्ठछट्ठेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेण उड्ढं बाहाओ परिज्झिय परिज्झिय सुराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स बिहरितए, ४५. घट्ट विणं पाणयति आपणभूमीओप
भित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहगं गहाय तामलित्तीए नपरीए
४६. उच्च-नीय मज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिग्गात्ता
४७. तं तिसत्तक्खुत्तो उदएणं पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहारं आहारितए त्ति कट्टु एवं संपेहेइ,
४८. कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव उट्ठियम्मि सुरे
सहस्रस्तिम्मि दिणयरे तेयसा जलते सयमेय दारुमयं पडिग्गहग करेइ, करेत्ता विउलं असण पाण- खाइमसाइमं वक्खडावे,
४६. ततो पच्छा पहाए कयवलिकम्मे कयकोउय
५०. ५१. मंगल - पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगललाई वत्थाई पवर परिहिए अप्पमहन्याभरणालंकियसरीरे भोयणबेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए
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०३, उ० १, डा० ५०
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