Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

Previous | Next

Page 388
________________ २६. अंक बत्तीस न देश आख्यो इहां, तोस गुणतीसमी ढाल ताजी। भिक्ष भारीमाल ऋषराय प्रसाद थी, 'जय-जश' संपति सरस जाझी ।। ढाल : ६० १. अवियाई मे गोयमा ! मुट्ठिवाएणं केसग्गे वीइत्था । (श०३।११५) ३. तए णं से सक्के देविदे देवराया बज्ज पडिसाहरिता ४. ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ अति वेगे करि गोयमा ! वज्र ग्रहण नै काज। मुष्टि-वाय करि माहरा, केशाग्र वीजिया साज ।। मुष्टि बांधवं करि तदा, उपनों वायू ताय । तिण मुष्टी-बाये करी, मुझ केश अग्र कंपाय ।। _ *गोयम! चित लगाय ने सांभलो। (ध्रुपदं) शक देविंद्र तिण अबसर, रूडो ते सुरराय हो, गोयम ! शीघ्र वज्र प्रति संहरी, तुरत ग्रही वज्र ताय हो, गोयम ! मुझ तीन वार तीखे मनै, दक्षिण कर थी देख । प्रदक्षिणा दे प्रेम सं, वंदै हरष विशेख ॥ नमस्कार चित निरमल, वारू कर कहै वाय हो, प्रभुजी ! इम निश्चै भगवंत हूं, इण कारण इहां आय हो, प्रभुजी ! [हूं अरज करूं छू वीनती) ६. तुझ नेश्राये चमर ते, असुरिद सुधर्मे आय । आपणपैज आसातना, कीधी मुझ अधिकाय ।। ७. तब हूं कोप्यो तुरत ही, मूक्यो वज्र महाराय । चमर हणेवा चित करी, भारी द्वेष भराय ।। बज्र मूक्यां पछै मुझ बली, पाम्यो संकल्प पूज्य । नहीं शक्ति ए चमर नों, यावत् अवधि प्रयुज्य ।। ५. नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासि—एवं खलु भंते ! ६. अहं तुब्भं नीसाए चमरेणं असुरिदेणं असुर रण्णा सयमेव अच्चासाइए। ७ तए णं मए परिकुविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो वहाए वज्जे निसठे । ८. तए णं ममं इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था नो खलु पभू चमरे असुरिदे असुरराया तहेव जाव ओहि पउंजामि, ६. देवाणुप्पिए ! ओहिणा आभोएमि, आभोएत्ता हा ! हा ! अहो ! हतो अहमंसि त्ति कटु ताए उक्किट्ठाए अवधि करी अवलोकिया, देवानप्रिय देख । हा ! हा! इति खेदे कहो, यावत् सर्व संपेख ।। जाव १०. जेणेव देवाणुप्पिए तेणेव उवागच्छामि, देवाणुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं वज्ज पडिसाहरामि, ११. वज्जपडिसाहरणट्ठयाए णं इहमागए १०. हे देवानुप्रिया नै कनै, निश्च आयो हूं आज । आंगुल च्यार अणपामियां, संहरियो वज्र साज।। वज्र प्रतै ग्रहिवा भणी, आयो इहां चलाय। ईणहिज तिरछा लोक में, अवर कारण नहि आय ।। १२. ए सुंसुमारपुर नगर नै विर्ष, समोसरयो अवधार। संप्राप्त थयो स्वामजी ! उद्याने इह वार ।। १२. इह समोसढे इह संपत्ते *लय-स्वामी म्हारा राजा ने धर्म श०३, उ०२, ढा०६० ३५५ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474