Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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५८.
५६.
अधोलोक खोभावतो जाणक, जाण मेदनीतल कंपातो। जन थी आकर्षतो तिरछा-लोक नै, सुधर्म स्वर्गे जातो॥ जाणक अंबर तल फोडतो, किणही स्थान गाजतो। किणही स्थानक बीजल नी पर, चमकत नै झबकंतो।। किणही स्थानक मेह बरसाव, रजो वष्टि किहां करतो। अंधकार ते तमसकाय प्रति, किणही स्थानके धरतो।। व्यंतर - सुर नै त्रास विशेष, उपजावतो हरषावै। जोतिषि बे भागे करतो, बीच निकलतो जावै॥ आत्मरक्षक नै त्रास पमावत, करतो अति तोफान । परिघ आयुध नै आकाशतल में, उलालतो द्युतिमान ।।
६१.
भाषा
६२.
६३. ते उत्कृष्टी गति कर चालत, जाव तिरछा असंख्यात।
द्वीप समुद्र नै मध्य थइ नै, उलांघतो थको जात ॥ ६४. जिहां सुधर्म - कल्प सुधर्म-अवतंसक बीच ए शक विमाण।
जिहां सुधर्मा शक सभा छ, तिहां आयो धर माण ।। इक पग पद्मवेदिका ऊपर, सुधर्मा-सभा पग एक। अजाणचकरो' आवी ऊभो, रूप विकराल विशेख ।। परिघ रत्न ते आयुध करिकै, मोटै मोटै रव ताय । प्रतोली कपाट युग मध्य प्रतै ए, तीन बार कूटी कहै वाय ।।
५८. खोभते चेव अहेलोयं कंपेमाणे व मेइणीतलं साक ड्ढते व
तिरियलोयं ५६. फोडेमाणे व अंबरतलं कत्थइ गज्जते, कत्थइ विज्जु
यायंते, ६०. कत्थइ वासं वासमाणे, कत्थइ रयुग्घायं पकरेमाणे,
कत्थइ तमुक्कायं पकरेमाणे, ६१. वाणमंतरे देवे वित्तासेमाणे-वित्तासेमाणे जोइसिए देवे
दुहा विभयमाणे-विभयमाणे, ६२. आयरक्खे देवे विपलायमाणे-विपलायमाणे, फलिहरयणं
अंबरतलसि वियट्टमाणे-वियट्टमाणे, विउब्भाएमाणे
विउब्भाएमाणे ६३. ताए उक्किटठाए जाव तिरियमसंखेज्जाणं दीव-समुट्टाणं
मझमझेणं वीईवयमाणे-बोईवयमाणे ६४. जेणेव सोहम्मे कप्पे जेणेव सोहम्मवडेंसए विमाणे, जेणेव
सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ ६५. एगं पायं पउमवरवेइयाए करेइ, एगं पायं सभाए
सुहम्माए करेइ, ६६. फलिहरयणेणं महया-महया सद्देणं तिक्खुत्तो इंदकील
आउडेइ आउडेता एवं वयासी-- 'इंदकील' त्ति गोपुर कपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम् ।
(वृ०-५० १७५) ६७. कहि णं भो ! सक्के देविदे देवराया ? कहि णं ताओ
चउरासीइसामाणियसाहस्सीओ? कहि णं ते तायत्तीस
यतावत्तीसगा? कहि णं ते चत्तारि लोगपाला? ६८. कहि णं ताओ चत्तारि चउरासीईओ आयरक्खदेवसा
हस्सीओ ? कहि णं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ? ६६. अज्ज हणामि, अज्ज महेमि, अज्ज बहेमि, अज्ज मर्म
अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतु ७०. इति कटु तं अणिटुं अकंत अप्पियं असुभं अमणुण्णं
अमणामं फरुस गिरं निसिरइ। (श०३।११२)
६७. किहां रे शकसुर इंद सुरराजा,किहां सामानिक चउरासी हजारं।
किहां तावतेतीसक देवता, लोकपाल किहां च्यारं ।।
६८. किहां आत्म-रक्षक तीन लाख अरु, ऊपर छतीस हजारं।
अनेक अपछरा कोडांगमैं ते, किहां गई इहवारं ।। हणस्यू आज मथू दही नीं पर, वध करूं हूं आज।
पूर्वे वस नहीं जेह अपछरा, मुझ वस थइ नमियै समाज ॥ ७०. इम कहीनै अनिष्ट अकांतज, अप्रिय असुभ अगमता।
मन में नहीं रुचै तेहवा कठण वच, निशंकपणे इम वमता ।। ७१. अंक बत्तीस न देश कह्य ए, अठावनमीं ढाल ।
भिक्ष भारीमाल ऋषिराय प्रसादै, 'जय-जश' मंगलमाल ।।
१. अचानक
३५२ भगवती-जोड़
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