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एए णं चत्तारि पदा एगट्ठा नाणाघोसा नाणार्वजणा।
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उदीरवा मांड्यो, तास उदोरयो कहीजे। वेदवा मांड्यो जे, वेद्यो तास वदीजै ।। हीणो थावा मांड्यं, हीण थयं कहिवाय । ए पद च्यारूंई, एक अर्थ माहोमांय ।। णाणा घोसा ते, घोष जुजूआ जाण । बलि नाना व्यंजन, जुजुआ अक्षर पिछाण ।। उप्पन्नपक्खस्स , उत्पन्न ते उत्पाद । तसुं पक्ष अंगीकृत, पर्याय अर्थ इक साध ।। अथवा ए च्यारूंइ, अंतर्महत भादि। तुल्य काल छै ते भणी, एक अर्थ विधि आवि ।। उत्पाद नाम ते, वर पर्याय विशिष्ट । केवल उपजवू, तेहिज ए इहां इष्ट ।। कर्म - चिताधिकारे, कर्म-क्षये फल दोय। इक केवलज्ञानं, द्वितिय मोक्ष पद जोय ।। तिहां ए च्यारूं पद, केवल नों उत्पाद । तेह वेला आश्री, एक अर्थ वर साध ।। जीव कदेय न पायो, केवल ज्ञान - पर्याय । ते भणी मुख्य ए, तिण अर्थे विधि वाय ।। ते केवल ज्ञान नों, ऊपजवो - सुपर्याय । अंगीकार कियो इहां, हिवै चिहं एकार्थ न्याय ।। अनुक्रम तेहन इम, कर्म चल्यू जे जांण । तेहिज उदय आव्यू, तेहिज वेधू थयुं हांण ।।
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११६. उप्पण्णपक्खस्स
उत्पन्नपक्षण---उत्पादांगीकारेण-उत्पादाख्यं पर्याय
परिगृह्य एकार्थान्येतान्यूच्यन्ते। (३०-प०१७) १२०. अथवा सर्वेषामेषामुत्पादमाश्रित्यैकार्थकारित्वादेकान्त
मुहर्तमध्यभावित्वेन तुल्यकालत्वाच्चैकार्थिकत्वमिति भावः।
(वृ०-प०१७) १२१. स पुनरुत्पादाख्यः पर्यायो विशिष्ट: केवलोत्पाद एव ।
(वृ०-५० १७) १२२. कर्मचिन्तायां कर्मणः प्रहाणेः फलद्वयं केवलज्ञानमोक्षप्राप्ती।
(वृ०-प०१७) १२३. तत्रैतानि पदानि केवलोत्पादविषयत्वादेकार्थान्युक्तानि।
(वृ०-५० १७) १२४, १२५. यस्मात् केवलज्ञानपर्यायो जीवेन न कदाचिदपि
प्राप्तपूर्व : यस्माच्च प्रधानस्ततस्तदर्थ एव पुरुषप्रयासः, तस्मात्स एव केवलज्ञानोत्पत्तिपर्यायोऽभ्युपगतः ।
(वृ०-५० १७) १२६. एषां च पदानामेकार्थानामपि सतामयमर्थः सामर्थ्य
प्रापितक्रमः, यदुत—पूर्व तच्चलति-उदेतीत्यर्थः, उदितं च वेद्यते, अनुभूयत इत्यर्थः। (वृ०-५० १७)
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१. 'चलमाणे चलिए' इस पाठ से गौतम ने भगवान् महावीर के सामने नौ प्रश्न उपस्थित किए हैं। इन नौ प्रश्नों में प्रथम चार पदों को भिन्नार्थक माना गया है, शेष पांच पदों को एकार्थक । जबकि एक दष्टि से ये सभी एक ही अर्थ के वाहक हो सकते हैं, अथवा सर्वथा भिन्न-भिन्न अर्थबोध दे सकते हैं। यहां जो दो विभाग किए हैं, वे एक विशेष विवक्षा से किए हैं। उस विवक्षा के अनुसार दो प्रकार की पर्याय होती हैं-उत्पाद पर्याय और व्यय पर्याय । प्रथम चार पद उत्पाद पर्याय की अपेक्षा से हैं। इनमें केवलज्ञान की उत्पत्ति को लक्ष्य किया गया है। कर्मों के चलित, उदीरित और बेदित होकर हीन होने से ही केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। जो कर्म चलित हुआ उसी की उदीरणा होगी उसी का वेदन होगा और वही क्षीण होगा । इसलिए ये सब शब्द समानार्थक हैं।
अग्रिम पांच पद-छेदन, भेदन, दहन, मरण और निर्जरण हैं। इनका प्रतिपादन व्यय पक्ष की अपेक्षा से है। उत्पाद पक्ष का सम्बन्ध केवलज्ञान से है और व्ययपक्ष का मोक्ष से। इसमें कर्मों के छेदन, भेदन आदि से जो अवस्था प्राप्त होती है वह मोक्ष से पहले की अवस्था है इसीलिए इन पांचों पदों को भिन्न-भिन्न अर्थों का वाचक माना गया है।
५२ भगवती-जोड़
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