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६५. श्री जिन भाखै जघन्य स्थिति तो, दश हजार वर्ष दाखी।
उत्कृष्टी सागर जाझेरी, बलि-इंद्र आश्री भाखी ।।
६६. असुरकुमार देव हे भगवंत !, किता काल सू लेवै।
आण-पाण उसास-निश्वास ? हिव प्रभु उत्तर देबै ।। ६७. जघन्य थोव सप्त अरु उत्कृष्टो जाझो पक्ष ज जोवो।
इक उसास-निश्वास नों पाणू, सात पाणू इक थोवो ।।
१८. असुरकुमार देव हे भगवंत !, आहार तणा अर्थी छ ?
हां गौतम ! छै आहार ना अर्थी, प्रश्न गोयम वलि प्रीछै ।। 86. काल केतला थी हे भगवंत !, असुर कुमार लै आहारो?
जिन कहै द्विविध जाण लिये इक, अजाण थी बलि धारो।। १००. अजाणपणे तो लिये निरंतर, जाणपणे जे आहारो।
जघन चोथ - भक्त अरु उत्कृप्टो जाझो वर्ष हजारो॥
गोयमा ! जहण्णणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं । उक्कोसेणं साइरेगं सागरोवममिति यदुक्तं तद् बलिसंज्ञकमसुरकुमारराजमाश्रित्योक्तम् ।
(वृ०-प० २८) ६६. असुरकुमारा णं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाण
मंति वा ? ऊससंति वा णीससंति वा ? १७. गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं उक्कोसेणं साइरेगस्स
पक्खस्स आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, णीस
संति वा। १८. असुरकुमाराणं भंते ! आहारट्ठी?
हंता आहारट्ठी। ६६, १००. असुरकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्ठे
समुप्पज्जइ? गोयमा ! असुरकुमाराणं दुबिहे आहारे पण्णत्ते, तं जहा --आभोगनिव्वत्तिए य अगाभोगनिव्वत्तिए य । तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिए, से अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जइ । तत्थ णं जे से आभोग निव्वत्तिए, से जहणणं चउत्थभत्तस्स, उक्कोसेणं साइरेगस्स
वाससहस्सरस आहारट्टे समुप्पज्जइ। १०१-१०३. असुरकुमारा णं भंते ! किमाहारमाहारेंति ?
गोयमा ! दव्वओ अणंतपएसियाई दवाई, खेत्तकालभावपण्णवणागमेणं सेसं जहा नेरइयाणं जाव ते णं तेसि पोग्गला कीसत्ताए भुज्जो-भुज्जो परिणमंति?
१०१. असुरकुमार देव हे भगवंत !, किस आहार प्रतिबंधो?
जिन कहै गौतम! द्रव्य थकी ले, अनंतप्रदेशिक खंधो।। १०२. खेत्र काल भाव पन्नवणा-गमे करी पिछाणो।
___ अष्टवीसमां पद में आख्यो, तिम इहां पिण जाणो ।। १०३. शेष नारको नीं परै कहिवा, जाव असुर नै हतो।
कवणपणे आहरया जे पुद्गल, भुज्जो-भुज्जो परिणमंतो?।। १०४. जिन कहै पंच इंद्रिपणे परणमै, रूडा रूपपणेहो।
सुभ वर्ण सुगंध सुभ रस पणेज, सुभ फर्शपणेज तेहो।। १०५. इष्ट मनोहर वांछितपणेज, तृप्तिपणे परिणमेहो।
ऊर्द्धपणे ते लघुपण, पिण गुरुपण नहिं तेहो।। १०६. असुरकुमार पूर्व वह्या पुद्गल, परणम्या प्रमुख विचारो।
नरक जेम जाव चलित कर्म ते, निर्जरै सह विस्तारो।। १०७. नागकुमार तणी हे भगवंत ! किती स्थिति उपदष्टो?।
जिन कहै-दश वर्ष सहंस जघन, बे पल्य देसूण उत्कृष्टो।।
हस्तलिखित प्रतियों और वृत्ति में पहले बृहत् वाचना लिखकर बाद में संक्षिप्त वाचना दी गई है। जयाचार्य ने भी अपनी जोड़ में ढाल ४ पद्य १४ से १५१ तक बृहत् वाचना का अनुवाद किया है। उसके बाद छह पद्यों में संक्षिप्त वाचना को भी अपने अनुवाद में समाविष्ट कर लिया है।
बृहत् वाचना के आधार पर जो जोड़ की गई है, उसका पाठ अंगसुत्ताणि भाग २, पृ०८-१०, सू०११३२ के पाठान्तर से लिया गया है।
१०४,१०५. गोयमा ! सोइंदियत्ताए ५ सुरूवत्ताए सुवण्ण
ताए ४ इट्ठत्ताए ५, इच्छियत्ताए भिज्जियत्ताए उड्ढत्ताए, णो अहत्ताए सुहत्ताए, णो दुहत्ताए भुज्जो
भुज्जो परिणमंति। १०६. असुरकुमाराणं पुवाहारिया पुग्गला परिणया ?
असुरकुमाराभिलारेण जहा नेरइयाणं जाव नो
अचलियं कम्मं निज्जरंति। १०७. नागकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता?
गोयमा ! जहण्णणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं।
श०१, उ०१, ढा०४ ६३
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