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१८. सर्व संसारी ना सुविचार, दोय भेद किया
जगतार ।
तीज भेद इहां कियो नाहि, तिण सूं अविरत आधी असंजती मांहि ॥' (ज० स० ) दंभा ।
१६. नेरिया प्रभु ! तदुभयारंभा २०. इम पूछे गोयम
दम-सागर
स्यूं आयारंभा, परारंभा कहीजं कहिवाय, के अणारंभा कहीजं ताय ? | स्वामी, अनुग्रह करो अंतरजामी । दीनदयालं, वारू अर्थ बतावो विसालं ॥ २१. जिन कहै - नारकी दिल दंभा, छै आत्म-पर- उभयारंभा । अणारंभा तो नहिं कहिवाय, गौतम पूछे किण अर्थे ए वाय ? ।। २२. जिन कहै - अव्रत अपेक्षाय, आत्म-पर-उभयारंभा थाय । जाव पंचद्री तिर्थन अग्र आधी बिभेद संच ॥ २३. मनुष्य जीव तणो पर बुधवी, पर सिद्धां रो भेद न भयो। व्यंतर जोतषी नै वैमानीक, नारकी जिम कहिवा तहृतीक ||
इम
२४. 'इहो जय जश आखे न्याय, वीतमा दंडक रे मांय । आत्म-पर- उभयारंभा कहाया, तिर्यच श्रावक सहु इहां आया || २५. तिम मनुष्य श्रावक में लंभ, जव्रत आश्री आत्मादि आरंभ | अनत से क्रिया देश भी ताहि अत आधी असंजती मांहि ॥
( ज० स० ) २६. सलेसी ने कृष्णादिक लेस, सातूं नों प्रश्न उत्तर विशेष | पाठ मांहि संक्षेप बतायो, तिए रो निर्णय निसुणो न्यायो ॥ २०. सलेसी जीव स्यूं आयारंभा के पर- उभय- अणारंभ संभा ? अधिक संसारी ना किया भेद, तिम सवेसीनां ज सुवेद' ॥
१. सलेश्यी, कृष्णलेश्यी आदि जीव आत्मारंभी हैं ? परारंभी हैं? या अनारंभी है ? इस प्रश्न के उत्तर में औधिक पाठ का उल्लेख कर कहा गया है- 'पमत्ताप्पमत्ता भेदा न भाणियव्वा' प्रमत्त और अप्रमत्त ये भेद संयती के हैं। संयती और असंयतीये दो भेद संसारी जीव के हैं ।
यहां प्रमत्त और अप्रमत्त भेदों की चर्चा नहीं की। इसका अर्थ यह है कि जो जीव अप्रमत्त हैं, वे आरंभी हैं ही नहीं। इसलिए उनको साथ रखने की अपेक्षा नहीं रही। पर इस संबंध में वृत्तिकार का अभिमत दूसरा है। उनके अनुसार कृष्ण, नील आदि अप्रशस्त भाव लेश्या में साधुत्व होता ही नहीं है। इसलिए कृष्णलेश्यी आदि के प्रमत्त और अप्रमत्त भेद नहीं किए।
यदि कृष्णलेश्यी में साधुत्व नहीं होता तो संसारी जीव के संयती और असंयती - ये दो भेद क्यों किए जाते ? ये दो भेद सूत्र ११३४ में किए जा चुके हैं। इस दृष्टि से वृत्तिकार का मत आलोच्य है ।
जयाचार्य ने वृत्तिकार के इस मत के साथ न केवल अपनी असहमति ही व्यक्त की है, अपितु इसकी कड़ी समीक्षा भी की है। इस विस्तृत समीक्षा में उन्होंने ११० भगती-जोड़ दाल ५१२४१४०) लिखे हैं, जो सूक्ष्म दृष्टि से पठनीय हैं।
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१६. नेरइया णं भंते! कि आयारंभा ? परारंभा ? तदुभयारंभा ? अणारंभा ?
२१-२३. गोयमा ! नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । ( ० २०३५)
से पट्ठे ?
गोमा ! अविरति पच्च से तेजद्वेगं गोपमा ! एवं वुच्चइ - नेरइया आयारंभा वि, परारंभा वि, तदुभयारंभा वि, नो अणारंभा । (πro (128) एवं जाव पंचिदियतिरिक्खजोणिया । मणुस्सा जहा जीवा, नवरं - सिद्धविरहिया भाणियच्वा । वाणमंतरा जोइसिया बेमाणिया जहा नेरइया । (स० १०२७)
२६-२८. सलेस्सा जहा ओहिया । कण्हलेसस्स, नीललेसस्स, काउलेसस्स, जहा ओहिया जीवा, नवरं - पमत्ताप्पमत्ता न भाणियव्वा ।
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श० १, उ० १, ढा० ५
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