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रहयो स्यूं जीव ना अर्द्ध प्रदेश 1
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नरके ऊपजतो नरक नो अवयव अर्द्ध के अद्वेणं सव्वं अशेस ? कै सव्वेणं अद्ध ऊपजै, कँ सव्वेणं सव्वं जोय ? जिम प्रथम आठ आलावा कह्या, तिम अर्द्ध नां पिण अठ होय ॥ णवरं देशेणं देस जिहा अणं अ कहिवास ए सर्व दंडक सोल छै भगवा विचारी ने न्याय ||
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उप
हिव गति सूत्र कहै अछे, सांभलजो चित हे प्रभु! इक वच जीव ते, स्यूं गति विग्रह वक्र गति करि ने जाये तदा ते गति विग्रह के अविग्रह गति सहीत छं जी ? विग्रह गति ऋजु गति कहिये तेहने तथा
से
अविग्रह
निकलते गति पूर्व थी प्राय ।
ल्याय ॥ सहीत ?
कहींत ॥
नांव ।
थाय ||
2
जिन कहे विग्रहगति कदा रह्या अविग्रह किवार। इम जाव वैमानिक लगे, एतो इक वच प्रश्न उदार ॥
समापन्न |
बहु वच जोवा हे प्रभु विग्रह गति ! के अविग्रहगति सहीत ? जिन कहै दोनूं जन्न ॥ ?,
बहु वच नारकी हे प्रभु ! स्यूं विग्रहगतिया चीन । के अविग्रहगतिया ? जिन कहै भांगा तीन || अछे सगलाइ जीव हुवै कदा, अविग्रह-गति समापन्न । उत्पत्ति विरहे वि हुबै नरके रह्या बहु वचन्न । अथवा अविग्रह-गति घणां विग्रहगति हवे एक अथवा विग्रह-गति घणां, अविग्रह - गतिया' अनेक ||
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१. अन्तराल गति के दो प्रकार हैं-विग्रह गति और अविग्रह गति । विग्रह गति अर्थात् वक्र गति, अविग्रह गति का अर्थ है ऋजुगति ।
भगवती के प्राचीन टीकाकार ने अविग्रह गति का अर्थ ऋजु गति ही किया है। अभयदेव सूरि ने विग्रह गति का अर्थ वक्रगति किया है। पर अविग्रह गति के दो अर्थ किए हैं अग्रिमानस्तुतिः स्थितो वा अन्यदेवसूरि ने इस अर्थद्वय का स्पष्टीकरण देते हुए लिखा है-यदि अविग्रह गति का अर्थ ऋजुगति ही करें तो नरकादि दण्डकों में अविग्रह गति समापन्न जीवों का सर्वदा बहुत्व कहा जाएगा, वह घटित नहीं होगा क्योंकि वहां एक, दो, तीन जीव ही उत्पन्न होते हैं । इसलिए अविग्रह गति का एक अर्थ अगति मानने से ही इस अर्थ की संगति बैठ सकती है।
२४-२७.
इमं तेरह उववज्जमा कि १. अद्वेणं अद्धं उववज्जइ ? २. अद्वेणं सव्वं उववज्जइ ? ३. सव्वेणं अद्धं उववज्जइ ? ४. सव्वेणं सव्वं उब्वज्जइ ? जहा पढमिल्लेणं अट्ठ दंडगा तहा अद्वेण वि अट्ठ दंडगा भाणियव्वा, नवरं जहि देसेणं देस उववज्जइ, तहि अद्वेणं अद्धं उववज्जइ इति भाणियव्वं, एयं नाणत्तं । एते सव्वे वि सोलस दंडगा भाणियव्वा । (श० १ ३३४ ) २. उत्पत्तिरुना व प्रायो गतिपूर्विका भवतीति गतिसूत्राणि । ( वृ० प० ८५) २६,३०. जीभते कि विग्गहगसमाए ? अविग्गहग इसमावण्णए ?
२६. विग्रहो वक्रं तत्प्रधाना गतिविग्रहगतिः, तत्र यदा वक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिसमापन्न उच्यते । अविग्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिकः विग्रहगतिनिषेधमात्राथयणात् (बु०प०६५) ३१. गोमा सिन्गिनसमाए सिय अहिनद
(० १०३२५)
( श० १ ३३६ )
?
समावण्णए ।
एवं जाव वेमाणिए । २२. जीवा गंभ! कि
गइसमावण्णया ?
गोयमा ! विग्गहगइसमावण्णगा वि, अविग्गहगइसमावण्णगा वि । (श० ११३३७) ३३, ३४. नेरइयां णं भंते ! किं विग्गहगइसमावण्णगा ? अग्निसमावण्या ?
गोयमा ! सव्वे वि ताव होज्ज अविग्गहगइसमावण्णगा
३५.
हिमावण्णा विग्गहगहसमावण
य | अहवा अविग्गगइसमावण्णगा य, विग्गहगइसमा
वण्णगा य ।
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श० १, उ० ७, ढा० २०
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