Book Title: Bhagavati Jod 01
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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४६. ते इक पद्मवर-वेदिका करके, इक वनखंड करि जाण्यो।
सर्व प्रकारे सगलै वीट्यो, वर्णक बिहं नो बखाण्यो।
४६. से णं एगाए पउमवरवेइयाए, वणसंडेण य सव्वओ
समंता संपरिक्खित्ते। पउमवरवेइयाए वणसंडस्स य वण्णओ।
(श० २०११८)
वाल..पद्मवर-वेदिका नों अनै वनखंड नो वर्णक जाणवो। तिहां वेदिका नो वर्णक इम सा णं पउमवरवेइया अद्धं जोयणं उड्ढे उच्चत्तेणं पंच धणुसयाई विक्खंभेणं सब्वरयणामई तिगिच्छिकूड उवरितलपरिक्खेवसमा परिक्खेवेणं, तिगिच्छ कूट ना ऊपरला तला नी परिधि नी पर बीटी रही छ। ते पद्मवर-वेदिका केहवी छ-तीसे णं पउमवरवेइयाए इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, वर्णकव्यास ते वर्णकबिस्तर । वइरामया नेमा--बज्रमय नेमा ते थांभा नां मूल पाया। परिक्खेवेणं इत्यादि । अनै बनखंड नों वर्णक ते इम-से णं वणसंडे इत्यादि। किण्हा कहितां
कृष्ण वर्ण, किण्हाभासे कहितां कृष्ण वर्ण द्युति इत्यादि । ५०. ते तिगिच्छ-कट उत्पात-पर्वत रे, ऊपर बह सम जाणी।
अत्यंत - सम - रमणीक - भूमिभाग, वर्णक तास पिछाणी।।
५०. तस्स णं तिगिछिकूडस्स उप्पायपब्वयस्स उप्पि बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते-वण्णओ।
(श० २।११९)
वा०-मृदंग जो जे मुख ते सरिखे वा भूमिभाग का वर्णक-से जहा नामए 'आलिंगपुक्खरेइ वा' मुरज वाजंत्र विशेष तेहनो जे मुख ते सरिखो, 'मुयंगपुक्खरेइ बा' 'सरतलेइ वा' पाणी सू भर्यो तलाब नों तलो ते सरीखो, 'करतलेइ वा' हाथ ना तला सरीखो, 'आयसमंडलेइ वा' आरीसा नां मंडल सरीखो, 'चंदमंडलेइ वा'
चंद्रमंडल सरीखो, इत्यादि। ५१. ते बह-सम-रमणीय भूमिभाग नै, बह मध्य देश भागे हो।
प्रासाद-अवतंसक इक मोटो, मुकुट सरीखो तेहो ।। ५२. अढा ताप
अढी सौ योजन ऊंच पण ते, सवा सौ जोजन चोड़ो। प्रासाद-वर्णक, उल्लोक-वर्णक, बलि भूमि नों वर्णक जोड़ो।।
५१. तस्स णं बहुसम-रमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेस
भागे, एत्थ णं महं एगे पासायव.सए पण्णते५२. अड्ढाइज्जाई जोयणसयाई उड्ढे उच्चत्तेणं, पणुवीस
जोयणसयं विक्खंभेणं । पासायवण्णओ। उल्लोयभूमिवण्णओ।
सोरठा अति ही ऊंचो प्राप्त, प्रकर्ष हसित तणी परै। प्रभा-पटल परिव्याप्त, तिण करिक प्रहसित अछै ।।
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अथवा प्रभा करेह, सित ते शुक्ल कहीजिये। अथवा संबद्ध एह, पाठ पहसिए अर्थ त्रिण ।। मणी चंद्रकांतादि, सूवर्ण रत्न तणीं बलि। भांति करी प्रासादि, चित्र इत्यादि सुवर्णक ।। ते प्रासादवतंस, तसं ऊपरला भाग न । वर्णक इसो प्रसंस, प्रभू परूप्यो ते सुणो।। पद्म-लता नी भांति, तिण करि चित्रित जाव सहु। तवणिज्जमए सुकांति, अच्छ जाव प्रतिरूप जे ।। ते प्रासादवतंस, तेहन बहु-सम-रमणीय । भूमिभाग सुप्रसंस, आख्यो ? ते सांभलो।।
५३. अभ्युद्गतश्चासावुच्छ्रितश्चेत्यभ्युद्गतोच्छ्रितः, अत्यर्थ
मुच्च इत्यर्थः, तथा प्रहसित इव प्रभापटलपरिगततया प्रहसितः ।
(व०-प०१४५) ५४. प्रभया वा सित:-शुक्लः संबद्धो वा प्रभासित इति।
(वृ०-५० १४५) ५५. मणिकनकरत्नानां भक्तिभिः --विच्छित्तिभिश्चित्रो विचित्रो यः स तथा।
(वृ०-५० १४५) ५६. उल्लोचवर्णकः प्रासादस्पोपरिभागवर्णकः, स चैवम्
(वृ०-५० १४५) ५७. पउमलयभत्तिचित्ते जाव सब्बतवणिज्जमए अच्छे जाव पडिरूवे।
(वृ०-५० १४५) ५८. तस्स णं पासायडिसयस्स बहसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते।
(वृ०-५० १४५)
श०२, उ०८, ढा०४५ ३०१
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