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इहां पिण सचित्त आंबो शिष्य अपंडित अथवा रोग-निमित्त ग्लान वैद्य उपदेश थकी भोगवं। अथवा मार्ग नै विषै ऊणोदरी छतै अणसरत भोगवै तो विशुद्ध । इम सचित्त आंबो भोगवणो थाप्यो ते सूत्र थकी विरुद्ध ३ ।
तथा वबहार नी टीका ना सारोद्धारे नवमै उद्देशै इम कह्य ते कहै छ---
'दंडको दीर्घः स्थविरश्च ततस्तं दुर्गे व्याघ्रादिपरिवारण निमित्तं परिवहति' इहां कह्यो दीर्घ दांडो स्थविर राखै विषम जायगां व्याघ्रादिक नै निवारण अर्थे । ते विरुद्ध ४। __ तथा बृहत्कल्प नी वृत्ति में अथवा चूणि में रात्रि भोजन करवो कह्यो ते लिखिये छइदाणि कप्पया भण इ अणाभोगे दार-गाहा-अणाभोगेणं वा राइभत्तं भंजेज्ज गिलाण कारणेण वा अद्धापडिसेवणं वा दुल्लह दव्व वनो वा १ उत्तमट्टप डिवण्णो राया भणइ रायाभत्तं भुजेज्जा य स कालमि गच्छानु कपियाए वा रायाभत्ताणण्णा सुतत्थविसारए वा रायभत्तागुण्णा एस संखेवत्थो।
इहां बहत्कल्प नी चूणि तथा निशीथ नी चूणि नै विष कह्यो। रोगादिक कारण रात्रिभोजन करणो अनै बृहत्कल्प उद्देशे ५ में साधु निरोग शरीर नों धणी समर्थवंत नै तथा रोगे करी सहित एहवा असमर्थवंत नै पिण सूर्य ऊगां थी आहार लेवा नी वृत्ति कही। आथम्यो नहीं तठा ताई भोगवणो कह्यो। आहार बहिर्या पछै जाण्यो सूर्य न ऊगो तथा मूहढा में घाल्या पछै आथम्यो जाण्यो तो महढा मांहि हुई तथा हाथ नै विष तथा पात्रा मांहि हुई ते परठणो कह्य । भोगव तो चोमासी प्रायश्चित कह्यो। ए तो प्रत्यक्ष असमर्थवत नै पिण रात्रि-भोजन वयो । ते माटै चूणि मध्ये रात्रि-भोजन थाप्यो ते विरुद्ध छ।
तथा वलि ते चूणि मध्ये अनंतकाय नो दांडो साधु नै ग्रहण करिवू का ते लिखिये छै--- गिलाणो बालो उवही पलं बाणि वा अद्धाणे व झंति सावयभए णि वारणा घेप्पति,उवहिं सरीराण वहणट्ठा तेणगपडिणीय साण मादीण णि वारणा पुव्व अचित्त पच्छा मोसं सेसा परित्ताणता पुव्वं परित्त जाव पच्छा अनंतं ।
(नि० भा० गा० २०००) इहां कह्यो—मार्गे स्वापद ना भय निवारण अर्थे, उपधि शरीर वहण नै अर्थे चोर, प्रत्यनीक, श्वान आदि नै निवारण अर्थ प्रथम अचित्त, ते न मिले तो पछ मिथ परित काय नो, ते न मिले तो पछै अनंतकाय नो दांडो धारण करै, एह मध्य वार्ता कही ते प्रत्यक्ष विरुद्ध । ते न्यायवादी किम मानै ६।
तथा निशीथ उद्देश ६ चूणि मध्य राजा नै अभियोगे करी करिवो कह्यो ते पाठ अर्थ लिखियै छ
हिवै अभियोगद्वार कहै छैइयाणि 'अभिओगे' त्ति दारं कुल वसम्मि-भा० गाहा (२२४२) अभियोगे ण पडिसेवेज्जा। तत्थिमं उयाहरण-कोइ अपुत्तो राया अमच्चेहि भणिओ अपुत्तस्स तुज्झ कुल वंसे पहीण अकुमारस्स य परो पेल्लेहिति रज्ज, कि कज्जउ, भणह-"तुज्झ बुद्धीए पाहण्णं वट्टति” ।
२६२ भगवती-जोड़
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