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११.
इसी इह भव
ए सेवा अम्ह ने जावत साथै आवसी, सेवा इम कहिनें मांहो मांहि नो वचन आप आपणा घर मझे, आया अंक पचीस न देस ए बयालीसम भिक्खु भारीमाल ऋषराय थी, 'जय जश' हरष विशाल ||
ढाल ।
पर भव मांय सुखदाय ॥ अंगीकार ।
सहु तिन वार ॥
२६५ भगवती-जोड़
फल
ढाल : ४३
वहा
स्नान करि बलि-कर्म कृत, तास
अर्थ अर्थ
कीधो
गृह-देवता, देखो
हिये
कहे हेव ।
1
देव
कहेव ॥
'केइक इहां गृह देवता जिन प्रतिमा पिण इतलो जान नहीं, ए किन पर नो देव ॥ तीर्थकर तो सही, तीन लोक नां देव छै ते किम जिन प्रतिमा भणी, घर नां जिन प्रतिमा जिन सारिखी, इम पि वलि स्थाप घर - देवता, ए किम कदापि कुल देवी प्रत, कहिये लौकिक हेते पूजता, श्रावक पिण स्वयमेव ॥
कहिता जाय ।।
मिलसी न्याय ?
घर नां देव ।
बा०—शतक ७ में उ० ९ में वृत्ति में न्हाया 'कयबलिकम्मा' बलि-कर्म ते देवता इको, ए किस देवता ? जिन-प्रतिमा हुवै तो जिन प्रतिमा कहिता, पिण देवता कहिया से कांइ प्रयोजन ?
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करी
राणोज विशेष ।
शेष ॥ हेत ।
दूहा बलि-कर्म तो अर्थ धर्म-सी, स्नान कोषो बलि-कर्म शब्द करी, आया कारज ज्ञाता अध्येन दूसरे, सुत वांछा नें नागभूत यक्ष पूजवा गई सुभद्रा पोखरणी में स्नान करि, कीधा बलि-कर्म आम । देव नीं प्रतिमा पूजी ओढणो, एहवी छतीज कमल वह ग्रही नीकली, पुष्करणी थी
तेथ ॥
बाव मध्य कि
ताम ||
भीनी साड़ी
बहु पुष्प गंध कांडे जे मूक्या
धूपणो माध्य प्रमुख प्रथम, तेह गृही नैं
पाछे नाग घर आयने प्रतिमा पुजी जाव वेसमण नी बलि पूजी आखी
1
वृतिकार | विचार ॥
तेह |
जेह ॥
अवलोय ॥
।
सोय ||
आम ।
ताम ||
५१. एवं भत्रे जाव आणुगामियताए भविस्सति
५२. इति कट्टु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमट्ठे पडिसुर्णेति, पडिसुता जेणेव सवाई-पाई मिहाईमेव उपागच्छति
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१. पहाया कयबलिकम्मा
स्नानान्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा ।
(१०-१० १३०)
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