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ढाल भली पैंतीसमी भिक्ष भारीमाल ऋपराय। 'जय-जश' संपति साहिवी आनंद तास पसाय ।।
ढाल : ३६
दूहा हिव खंधक ऊठी करी, वीर प्रते तिणवार । दक्षिण करे प्रदक्षिणा, दै वच वदै उदार ।।
निग्रंथ-प्रवचन हे प्रभ ! श्रध्या' म्हैं सुखकार। प्रतीतिया म्है प्रीति करि, प्रत्यय वा सत्य सार ।
निग्रंथ प्रवचन बलि रुच्या, हूं करसं अंगीकार। एवमेयं इमहीज ए, सामान्य थी सुविचार ।।
१. उट्ठाए उठेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो
आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी२. सहामि णं भंते ! निगंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गथं पावयणं, प्रीति प्रत्ययं वा सत्यमिदमित्येवं रूपं तत्र करोमीत्यर्थः ।
(वृ०-प० १२१) ३. रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं,
अब्भुठेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं । एवमेयं भंते !
एवमेतन्नैर्ग्रन्थं प्रवचनं सामान्यतः। (वृ०-५०१२१) ४. तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! 'तहमेयं' ति तथैव तद्विशेषतः 'अवितहमेयं' सत्यमेतदित्यर्थः।
(वृ०-प०१२१) ५. असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं
भंते! 'असंदिद्धमेयं' ति सन्देहजितमेतत् 'इच्छियमेयं' ति इष्टमेतत् 'पडिच्छियमेयं ति प्रतीप्सितं प्राप्तमिष्टम् ।
(वृ०-प० १२१) ६. इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते !
युगपदिच्छाप्रतीप्साविषयत्वात्। (वृ०-१० १२१)
तहमेयं तिमहिज ए, विशेष थी कहिवाय । अवितह-ते सत्य ए, प्रवचन सूत्र सुहाय ।।
असंदिद्ध संशय-रहित, हे प्रभु ! ए तुझ वाय । इच्छिय वांछ पडिच्छियं-पामवं वांछू ताय ।।
इच्छिय-पडिच्छियं तसु अर्थ ए युगपत् समकाल। इच्छा बलि पामण तणी वांछा विषय निहाल ।।
१. भगवती २।५२ का पाठ है
सद्दहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं पत्तियामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं
रोएमि णं भंते ! निग्गथं पावयणं व्याकरण की दृष्टि से ये वर्तमान काल के उत्तम पुरुष में एक वचन के रूप हैं। टीकाकार ने भी वर्तमान काल के आधार पर ही टीका की है। जयाचार्य ने अपनी जोड़ में यहां भूतकाल का प्रयोग किया है। मूल के साथ यह विसंगति-सी प्रतीत होती है, किन्तु व्याकरण-शास्त्र के अनुसार वर्तमान काल में आसन्नभूत का और आसन्नभूत में वर्तमान का प्रयोग असम्मत नहीं है। जयाचार्य ने यहां वर्तमान में
आसन्नभूत का प्रयोग किया है। २२२ भगवती-जोड़
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