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१४४. तिम छठे गुण ठाणे विचार, अशुभ जोग आवै किणवार ।
अशुभ अध्यवसाय पिण तिवार, अशुभ भाव लेस्या पिण धार ।। १४५. तिण सं कृष्णादिक संयति में कहीजै, ए धर पाठ तो नांहि तजीज।
तसुं भेद दोय नहिं थुणवा, प्रमत्त-अप्रमत्त भेद न भणवा।। १४६. प्रमादी में तो कृष्णादि पावै, अप्रमादी मांही नहि थावै।
तिण सं करणा वरज्या भेद दोय, ए न्याय प्रमत्त-अप्रमत्त जोय ।। १४७. ए आखी पंचमी ढाल, वारू न्याय अनेक विशाल । भिवख भारीमाल ऋपराय, सुख संपत्ति 'जय-जश' पाय ।।'
(ज० स०)
ढाल : ६
ए आरंभ भव-हेतु कह्य, हिव भव-हेतु-अभाव । ज्ञानादिक है तेहनों, वर्णन इह प्रस्ताव।। इह-भव में प्रभु ! ज्ञान है के परभव में ज्ञान ? तथा ज्ञान तदुभयभविक? गोयम प्रश्न प्रधान ।।
२.
वीर कहै सुण गोयमा! इह वर्तमान भव मांय। भण्यो ज्ञान इह - भव हुवै, जो परभव नहि जाय।। परभव में पिण ज्ञान है, तदुभय-भव' पिण ज्ञान । इह - भव भण्योज परभवे, संग ले जावै जान ।। दर्शण समक्त्व पिण इमज, हिव चारित्र पूछित्त। इह-भव कै परभव चरित्त, के तदुभय-भव चरित्त?।। जिन कहै इह-भव में चरित्त, जावजीव लग थाय । परभव में चारित नहीं, तदुभय-भव पिण नांय ॥
१. भवहेतुभूतमारम्भं निरूप्य भवाभावहेतुभूतं ज्ञानादि
धर्मकदम्बकं निरूपयन्नाह- (वृ०-५० ३३) २-४. इहभविए भंते ! नाणे? परभविए
नाणे? तदुभयभविए नाणे? गोयमा ! इहभविए वि नाणे, परभविए वि नाणे, तदुभयभविए वि नाणे।
(श० ११३६) ३, ४. 'इहभविए' त्ति ऐहभविकं यदिहाधीतं नानन्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं यदनन्तरभवेऽनुयाति, तदुभयभविकं तु यदिहाधीतं परभवे परतरभवे चानुवर्तत इति ।
(वृ०-प० ३३) ५, ६. दसणंपि एमेव।
(श० ११४०) इहभविए भंते ! चरित्ते? परभविए चरित्ते? तदुभयभविए चरित्ते? गोयमा ! इहभविए चरित्ते, नो परभविए चरित्ते, नो तदुभयभविए चरित्ते।
(श० ११४१) ७. एवं तवे संजमे।
(श० ११४२, ४३)
इमहिज तप इह - भव मझै, इमहिज संजम जोय। इहभव पिण नहिं परभवे, तदुभय-भवे न होय ।।
१. वृत्तिकार ने तदुभयभविक ज्ञान में पर और परतर---इन दो भवों का ग्रहण किया
है। वर्तमान भव और आगामी भव इन दो भवों में साथ रहने वाले ज्ञान को परभविक ज्ञान माना गया है। इसलिए तदुभयभविक ज्ञान को परभविक ज्ञान से भिन्न बताने के लिए पर और परतर भवा क ग्रहण आवश्यक हो जाता है।
श० १, उ० १, ढा० ५, ६ ७७
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