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कपंतरेहि पाठ ए, सप्तम अंतर जोय। कल्प में अंतर देख नै, शंका आणे कोय ।।
यतनी ठियकल्प अट्ठियकल्प साध, बिहुँ नै शिव-पंथ आराध। आवसग ठियकल्पी नै नियत, अट्ठियकल्पी नै नियत न कहत ।। काम बिहुं नों जाणे अतिचार, तिण ही वेला आलोवै सार। ए कल्प में इतो स्यं फेर? तिण रो उत्तर आगल हेर।। *प्रथम चरण ठियकल्प प्रज्ञा, अल्प छै तिह कारण। आवश्यक बिहु काल करिवू, एह नियमा धारणं ।। विचला ना मुनि बहप्रज्ञ सरल तस्, नियम आवश्यक नों नहीं। बिहं नै जिन आण जाणी, निशंक चित भावो सही।।
यतनी तथा जिनकल्प में कष्ट घणेरो, स्थविर कल्प में कष्ट थोडेरो। दोनइ कल्प में पहिछाण, नहीं ऊपजै केवलनाण ।। जिन-स्थविर-कल्पी सुवदीत, दोनइ हुवै कल्पातीत। तो दोनं न केवल लहिय, तो जिनकल्प कष्ट काय सहिये ? *जिनकल्प मुनि आदरै ते, कर्म बहु नै भेदवा। एम सम्यक्त्व देशव्रती धरै बहु भव छेदवा।।
मगंतरेहि आठमों, सुद्ध मार्ग में जाण । कोइ अंतर देखी करी, आणे भर्म अयाण ।।
यतनी साधु साध्वी ने सुविचार, सरिखा पंच महाव्रत सार। बलि शिवपद नी अधिकारी, सरिखी बिहं नै समाचारी ।। मुनि नै तीन पछेवडी आखी, साध्वी नै च्यार जिन भाखी। तथा सुनि नै न जडणो कमाड, कह्यो कल्प अवंगुयद्वार ।। अन साध्वी नै सुविचार, नहीं कल्पै उघाडै - द्वार। रात्रि सवै जडीनै कमाड, ब्रह्मचर्य - रक्षा भणी सार ।। कमाड न ह जो कोय, तो रहै बांधी पछेवडी दोय ।
इम मारग में अंतर जाण, भर्म आण कोइ अयाण ।। * लय--पूज मोटा भांज टोटा
११४ भगवती-जोड़
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