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८३. हे भगवंत ! नारको नै कर्म चल्यो जीव थी ताह्यो।
तेह कर्म बंध छै पाछो, कै अचलित बंधायो?।। ८४. जिन कहै चल्यो कर्म नहि बंधै, अचलित बंध कहायो।
चल्यो कर्म निर्जरवा सन्मुख, ते फिर केम बंधायो।। ८५. हे भगवंत ! नारकी नै स्यूं, चलियो कर्म उदीरै।
तथा अचलियो कर्म उदीर ?, पूछ शीस सधोरै ।। जिन कहै-कर्म चल्यो न उदीर, ते तो उदैज आयो।
उदीरणा अध्यवसाये करि, अचलित कर्म नी थायो ।। ८७. इमहिज वेदै इम अपवर्तन, संक्रम निधत्त निकाचो।
चलिया कर्म तणो तो न हवै, ह अचलित नै वाचो।। ८८. हे भगवंत ! नारकी नै स्यूं, चल्यो कर्म निर्जरियै।
कै जे अचलित कर्म निर? प्रश्न गोयम उच्चरियै ।। ८६. जिन कहै-चलियो कर्म निर्जरै, अचलित निर्जरै नांही।
उदय शब्द कर उदीरणा ए, संग्रहणि गाथा' माही ।।
८३, ८४. नेरइया णं भंते ! जीवाओ कि चलियं कम
बंधंति ? अचलियं कम्मं बंधंति ? गोयमा ! नो चलियं कम्मं बंधति, अचलियं कम्म बंधंति।
(श० १।२८) ८५, ८६. नेरइया णं भंते ! जीवाओ कि चलियं कम्म
उदीरेंति? अचलियं कम्म उदीरेंति ? गोयमा ! नो चलियं कम्म उदीरेंति, अचलियं कम्म उदीरेंति।
(श० ११२६) ८७. एवं—वेदेति, ओयटेंति, संकामेंति, निहत्तेति, निकाएंति।
(श० ११३०) ८८, ८६. नेरइया णं भंते ! जीवाओ कि चलियं कम्म
निज्जरेंति ? अचलियं कम्म निज्जरेंति ? गोयमा ! चलियं कम्मं निज्जरेंति, नो अचलियं कम्म निज्जरेंति।
(श० १।३१) ८६. केवल मुदयशब्देनोदीरणा गृहीतेति। (वृ०-प० २८)
६०. चल्यो निर्जरै इम वच कहिवे, निर्जर सम्मुख कहिये ।
तिम अचलित वेदै इम कहिवे, वेदण सन्मुख लहिये ।। १०. चल्यो निर्जरै इम कहिवै धर निर्जर थो पहिछाणी।
तिम अचलित वेदै इम कहिवै, धर वेदण थी जाणी।। १२. चलण समय नै निर्जर समयो, बिहं जुआ जोयो।
तिम अचलित समयो नै वेदन-समय जजआ होयो।। ६३. बंध उदय वेदै अपवर्तन, संक्रम निधत्त निकाचो।
अचलित कर्म तणी होवै छ, निर्जर चलित नै वाचो।
६४. नरक तणो अधिकार कह्यो हिव, अनुक्रम दंडक कहिये।
असुरकुमार तणी हे भगवंत, स्थिती केतली लहिय?।।
६३. बंधोदय वेदोयट्टसंकमे तह निहत्तणनिकाए। अचलिय-कम्मं तु भवे, चलियं जीवाउ निज्जरए।
(श० ११३१ संगहणी-गाहा) ६४,६५. उक्ता ना रकवक्तव्यता, अथ चतुर्विशतिदण्डक
क्रमागतामसुरकुमारवक्तव्यतामाह- (वृ०-प०२८) असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता?
१. नैरयिक जीव आत्मा से चलित-प्रकम्पित कमों की निर्जरा करते हैं या अचलित कर्मों की?
इस प्रश्न को उत्तरित करने के बाद एक संग्रहणी गाथा के द्वारा स्पष्ट किया है कि बंध, उदय, बेदन, अपवर्तन, संक्रमण, निधत्त और निकाचन आत्मा से अचलित कर्मों का होता है और निर्जरा चलित कर्मों की होती है।
उक्त गाथा में उदीरणा शब्द का ग्रहण नहीं है। बृत्तिकार के अनुसार उदय शब्द के द्वारा वह अपने-आप गृहीत हो जाता है। २. संग्रहणी गाथा के बाद जीवों की स्थिति आहार आदि के सम्बन्ध में दो वाचनाएं
उपलब्ध हैं । संक्षिप्त वाचना और बृहत् वाचना । संक्षिप्त वाचना में—'एवं ठिई आहारो य भाणियब्बो' यह पाठ है । बृहत् वाचना में पन्नवणा के आधार पर इनका विस्तृत विवरण है। अंगसुत्ताणि (भाग २, शतक १, सूत्र ३२) में संक्षिप्त वाचना स्वीकृत की गई है और नीचे टिप्पण में बृहत् वाचना उद्धृत कर दी गई है।
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६२ भगवती-जोड़
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