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५६. वीर कहै-कर्म द्रव्य वर्गणा, ते आश्री कहिवायो।
द्विविध पुद्गल सूक्ष्म बादर, भिज्जति-भेद पायो।।
५७ औदारिकादिक में कर्म ते, सूक्ष्म द्रव्य कहिवाया।
तिण कर्मा में सूक्ष्म मंद रस, स्थूल तीव्र रस आया ।। ५८. हे भगवंत ! नरक जीवां रै, पुद्गल कितै प्रकारो।
चय उपचय पामै छै प्रभुजी! हिव जिन कहै उदारो।। ५६. आहार द्रव्य नी वर्गणा आश्री, पुदगल दोय प्रकारो।
शरीरे चय उपचय होवै छ, सूक्ष्म बादर धारो।। ६०. हे भगवंत ! नरक जीवां रै, पुद्गल कितै प्रकारो।
उदीरणा होवै ते कहिये ? हिव जिन कहै उदारो।। ६१. कर्म द्रव्य नी वर्गणा आश्री, द्विविध पुद्गल केरी।
सुक्ष्म बादर कर्म तणीं ते, करै उदीरणा प्रेरी।। शेष बोल पिण इमहिज भणवा, वेदे निर्जरे जाणी'।
सूक्ष्म अल्पदलिक कर्म कहिय, बादर बहु - दल माणी ।। ६३. हिव त्रिहु काल अपेक्षा सूत्रे, अपवर्तन' नों न्यायो।
अध्यवसाय विशेष कर्म-स्थिति, दीर्घ अल्प करायो।
'भिज्जति' ति तीव्रमन्दमध्यतयाऽनुभागभेदेन भेदवन्तो भवन्ति, उद्वर्तनकरणापवर्तनकरणाभ्यां मन्दरसास्तीवरसाः तीव्ररसास्तु मन्दरसा भवन्तीत्यर्थः ।
(वृ०-५० २४) ५७. यत औदारिकादिद्रव्याणां मध्ये कर्मद्रव्याण्येव सूक्ष्माणीति।
(वृ०प० २५) ५८, ५६. नेरइया णं भंते ! कइविहा पोन्गला चिज्जति?
गोयमा ! आहारदब्बवग्गणमहिकिच्च दुविहा पोग्गला चिज्जति, तं जहा–अणू चेव, बादरा चेव । (श०१।२०) एवं उचिज्जंति ।
(श० १।२१) ६०, ६१. नेरझ्या णं भते ! कइबिहे पोग्गले उदीरेंति ?
गोयमा ! कम्मदब्बवग्गणमहिकिच्च दुविहे पोग्गले उदीरेति, तं जहा- अणू चेव, वादरा चेव ।
(श० १/२२) ६२. सेसावि एवं चेव भाणियब्बा-वेदेति, निज्जरेंति ।
(श० १/२३) ६३. एवं- ओयटेंसु, ओयटेंति, ओयट्टिस्संति ।
संकामिसु, संकामेति, संकामिस्संति । निहत्तिसु, निहत्तेंति, निहत्तिस्संति । निकाएंसु, निकायंति, निकाइस्संति।
(श०१/२४) ६३, ६४. इहापवर्तनं कर्मणां स्थित्यादेरध्यवसायविशेषेण
हीनताकरणम्, अपवर्तनस्य चोपलक्षणत्वादुद्वर्तनमपीह
दृश्य, तच्च स्थित्यादेवृद्धिकरणस्वरूपं । (वृ०-प० २५) ६५. तत्र संक्रमणं मूलप्रकृत्यभिन्नानामुत्तरप्रकृतीनामध्यव
सायविशेषेण परस्परं संचारणं। (वृ०-५० २५) ६६. “नन्वात्माऽमूर्त्तत्वादध्यवसायप्रयोगेण" ।
(वृ०-प० २५) ६७, ६८. यथा कस्यचित्सद्वेद्यमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणति
६४. उपलक्षण थी उद्वर्तन करणे, अल्प स्थिति दीर्घ करंतो।
__ किया करै करसी नेरइया, इम विहु काल कहंतो।।
६५. संक्रमणं ते अध्यवसाय करि, जे कर्म प्रकृति ते मांह्यो।
परस्परे संचारित ते, ए उत्तर प्रकृति नै न्यायो।। ६६. जीव अमूर्त तो ए प्रकृति, किम संक्रमवो थायो।
अध्यवसाय प्रयोग वीर्य करि, वत्तिकार कहिवायो।। अथवा पुन्य भोगवतां बिच में, अशुभ उदै कोइ आयो । इम शुभ माहै अशुभ संक्रम, पिण पुन्य नो पाप न थायो।।
१. पचपन से लेकर बहोत्तरवें पद्य तक अर्थात् भिज्जंति से लेकर निज्जरेंति तक जो
पाठ है उसका प्रतिपादन केवल वर्तमान काल की विवक्षा से किया गया है। तिहोत्तरवें पद्य में प्रतिपादित अपवर्तन, संक्रमण निधत्त और निकाचन---इन पदों में तीनों काल की विवक्षा है। उस विवक्षा से ही मूल आगम में तीनों कालों का ग्रहण किया गया है। २. उक्त सूत्र में अपवर्तन का ग्रहण है, उद्वर्तन का नहीं । पर जहां अपवर्तन है.---कर्मों की स्थिति में अल्पता आती है, वहां दीर्घता भी स्वाभाविक है। इसलिए अपवर्तन का ग्रहण होने से उद्वर्तन का ग्रहण स्वतः हो जाता है।
६० भगवती-जोड़
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