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अवधार ||
बलि कति भाग ? छठो प्रश्न तेनो कहूं विचार | नारकी जे पुद्गल ग्रहै, आहारपण ग्रहण काल पाछे तिको उत्तर किती भाग जे आहार नों, आहारै जिन कहै उत्तर काल में असंख्यातमो
काले जेह । आस्वादेह || 'भाव' ।
आहार इहां वृत्तिकार का, निसुणो धर अनुराग ॥ केयक इहां आखें इसो, गाय प्रमुख प्रथम ग्रास मोटो ग्रहै, तिम केयक २२. पुद्गल आहार पणे ब्रह्मां
अवलोय | नों जोय ॥
भाग आहारंत।
तनुपर्ण
तसुं असं अन्य पुद्गल अलगा पड़े, केइक अन्य आचारज हम कहे, असं भाग आहार अछे गाय प्रमुख मोटो ग्रहै, प्रथम ग्रास जिम ग्रह्मा तनु नहि परिणम्या, नहिं वंच्या ते शेष ॥ सरीरपणे जे परिणम्या, त्यां में पिण तत् जेह | विशिष्ट आहार कार्ये ब्रह्म सुद्ध कजुसूत्रे तेह ॥ बलि अन्य आचारज इम कहै, असंख भाग आहारंत । शरीरपणे जे परिणर्म, सनुपर्ण शेष न त ॥
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२०.
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२७.
सू
कहंत ॥
ते होय।
जोय ॥
पेष ।
एम
नये
परिणमे
असंख भाग जे परिणमं, आहारै कहीजै वर जिन वच प्रतीत से अधिक न कहोजे
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तास ।
जास ॥
१. नारक जीव जो आहार ग्रहण करता है, उसका कितना भाग आहार रूप में परिणत होता है और कितना भाग व्यर्थ जाता है ? इस प्रश्न के समाधान में वृत्तिकार ने तीन प्रकार की मान्यताओं का संकलन किया है।
प्रथम मान्यता के अनुसार गौ आदि पशु आहार ग्रहण करते हैं तो पहला ग्रास बहुत बड़ा लेते हैं । उसमें से अधिक भाग नीचे गिर जाता है और बहुत थोड़ा भाग वे खा पाते हैं। प्रथम गौ ग्रास की भांति नैरयिक जीव भी जो आहार ग्रहण करते हैं, उसका असंख्यातवां भाग ही आहार रूप में उपयोग में ले पाते हैं ।
दूसरा अभिमत ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा से व्याख्यात है। ऋजुसूत्र नय शुद्ध नय है । यह नय नैरयिक जीवों द्वारा प्रथम गौ ग्रास की भांति आहृत और शरीर रूप में परिणत आहार को गृहीत या परिणत आहार नहीं मानता। किन्तु उसमें भी जो विशिष्ट कार्यकारी आहार है, मात्र उतने आहार को आहार रूप में परिणत मानता है।
तीसरे अभिमत के अनुसार जो आहार किया जाता है, उसका बहुत कम भाग शरीर रूप में परिणत होता है। शेष सारा आहार मल-मूत्र आदि के रूप में विसर्जित हो जाता है । इसलिए नैरयिक जीव गृहीत आहार के असंख्यातवें भाग को ही आहार रूप में परिणत करते हैं।
२१, २२. इत्यत्र केचिद्व्याचक्षते - गवादिप्रथम बृहद्ग्रासग्रहण व कांश्विद्गृहीतासचे भागमाचान् मुलानाहारयन्ति तदन्ये तु पतन्तीति । ( वृ० प० २२)
२३-२५. अन्ये त्वाचक्षते -- ऋजुसूत्रनयदर्शनात्स्वशरीरतया परिणतानामसङ्ख्ये यभागमाहारयन्ति, ऋजुसूत्रो हि गयादिप्रथमवृद्धासग्रहण एवं गृहीतानां शरीरत्वेनापरिणतानामाहारतां नेच्छति, शरीरतया परिणतानामपि केावदेव विशिष्टाहारकार्यकारिणां तामभ्युप गच्छति, शुद्ध नयत्वात्तस्येति । ( वृ० प० २२ ) २६. अन्ये पुनरित्थमभिदधति असंवेदभागमाहारेति' त्तिरीया परिणमन्ति शेषास्तु किट्टीभूप मनुष्या भ्यवहृताहारवन्मलीभवन्ति न शरीर
परिणमन्ती
त्यर्थः ।
( वृ० प० २२)
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श० १, उ० १, ढा० ४
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