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आण ते सास ऊंचा लिय, प्राण अधो निश्वास। अन प्राणने धातु है, मकार आगम तास ।। अन्य आचारज इम कहै, आण-त्राण ए ग्राह्य । अभितर क्रिया कही, उसास-निश्वास बाह्य ।।
जिम उसास पद में कह्यो, प्रश्न - उत्तर वच गद्द। तिण प्रकार कहिवो सहु, पन्नवण - सप्तम-पद्द ।।
उत्तर पन्नवण में इसो, अंतर रहित विमास । आण-प्राण ले नेरिया, वलि उसास-नि:श्वास ।। पुनरुच्चारण वीर जिन, शिष्य वच आदर हेत। गुरु आदर दीधे छते, शिष्य संतोष समेत ।। प्रश्न श्रवण रुचि वृद्धि ह्व, गुरु-वच ह आदेय । भवि-उपकार सुतीर्थ वृद्धि, इम वृत्तिकार कहेय ।।
६. 'आणमंति' त्ति आनन्ति 'अन प्राणने' इति धातुपाठात् मकारस्यागमिकत्वात्।
(वृ०-प०१६) ७. अन्ये त्वाहु:-'आनन्ति वा प्राणन्ति वा' इत्यनेनाध्या
त्मक्रिया परिगृह्यते, 'उच्छ्वसन्ति वा निःश्वसन्ति वा' इत्यनेन च बाह्य ति। ८. 'जहा ऊसासपए' त्ति, एतस्य प्रश्नस्य निर्वचनं यथा उच्छ्वासपदे प्रज्ञापनायाः सप्तमपदे तथा वाच्यं ।
(वृ०-प०१६) ९. 'गोयमा ! सययं संतयामेव आणमंति वा पाणमंति वा ____ ऊससन्ति वा नीससंति वा'। (पन्नवणा ७१) १०, ११. आनमन्तीत्यादेः पुनरुच्चारणं शिष्यवचने आदरो
पदर्शनार्थ, गुरुभिराद्रियमाणवचना हि शिष्याः सन्तोषवन्तो भवन्ति, तथा च पौनःपुन्येन प्रश्नश्रवणार्थनिर्णयादिषु घटन्ते, लोके चादेयवचना भवन्ति, तथा च भव्यो
पकारस्तीर्थाभिवृद्धिश्चेति। (वृ०-५०२०) १२. अथ तेषामेवाहारं प्रश्न यन्नाह- (वृ०-५०२०)
नेरइया णं भंते ! आहारट्ठी। (श०१।१५) १३. जहा पण्णवणाए पढमए आहारुद्देसए तहा भाणियवं
१५-१६. ठिइ उस्सासाहारे, कि वाऽऽहारेंति सब्बओ वावि? कतिभागं सब्वाणि व? कीस व भुज्जो परिणमंति?
(श० १११५ संगणी-गाहा)
१२. आहार प्रश्न हिव तेहनों, नेरइया हे भगवंत !
आहार तणा अर्थी अछ?, आहार वंछा उपजत? || १३. पन्नवणपद अठवीस में, प्रथम उदेशे पेख ।
आहार तणों अधिकार तिम, इहां कहिवो सुविशेख ।। १४. संग्रह अर्थे गाहा इहां, संग्रहणी सुविचार।
स्थिति उसास पूर्वे कह्या, ते पिण ग्रह्या उदार ।। १५. स्थिति उसास तो आखिया, तृतिय आहार अधिकार।
आभोग नै अणाभोग नों, कह्यो घणो विस्तार ।। किं वाहारंति तिको, किं स्वरूप ले आहार ?
द्रव्य क्षेत्र काल भाव थी, ए चोथो अधिकार ।। १७. सर्व थकी? ए पंचमो, सह प्रदेश करि पेख ।
इहां पिण छै विस्तार बहु, पन्नवणा थी देख ।। १. विआहपण्णत्ति (भगवती) गणधर कृत है। इसीलिए आगमों के वर्गीकरण में यह अंग
आगम में आता है। पन्नवणा' उपांग है, इसलिए वह स्थविरों की रचना है। कालक्रम की दृष्टि से गणधर स्थविरों से पूर्ववर्ती हैं, इसलिए विआहपण्णत्ति का ग्रन्थन पहले हुआ है। ऐसी स्थिति में प्रस्तुत आगम में 'पन्नवणा' सूत्र के लिए समर्पण नहीं होना चाहिए। पूर्व रचित सूत्र में उत्तरकालवर्ती सूत्र के समर्पण की कोई संगति नहीं है। पर ऐसा प्रतीत होता है कि यह विपर्यास रचनाकाल का नहीं, लेखनकाल का है। संभव है, ग्रन्थ के विस्मृत अंशों के संकलन और लेखनकाल में 'पन्नवणा' पहले लिखा गया हो और विआहपण्णत्ति बाद में। संक्षेपीकरण की दृष्टि से पूर्वलिखित आगम का संकेत अस्वाभाविक नहीं है। अथवा इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मुलतः भगवती संक्षिप्त थी। संक्षिप्त प्रकरणों की पूर्णता के लिए उस विषय में अन्य आगमों में जहां जो सामग्री उपलब्ध हुई, उसे भगवती के साथ संयोजित करने के लिए पन्नवणा, औपपातिक आदि की भोलावण दे दी गई।
५६ भगवती-जोड़
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