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C
१०.
११.
१२.
१३.
१४.
१५.
जेहने
सोय ।
तथा जात जे प्रवर्त्यो, संशय तिको जातसंशय का एद्वितिय विशेषण जोय ।।
वा०
- संशय जे अनवधारित अर्थ-ज्ञान ते संशय, इम ते भगवंत गौतम नैं जात कहितां प्रवर्त्यो भगवंत महावीर 'चलमाणे चलिए' इत्यादिक सूत्र नै विषै चलवा लागो जे अर्थ तेहन चल्यो कह्यो । तिहां वलि जेहीज चलवा लागो तेहिज चल्यो इस कह्यो । तेह थकी एकार्थ ए बिहु कह्या चलवा लागो ए वर्तमान काल विषय, अनै चल्यो ए अतीत काल विषय एह थकी इहां संशय नाम जेहीज अर्थ वर्तमान तेही अतीत किम हुवे ? वर्तमान अतीत ए बिहु काल ना विरुद्ध पणा थकी।
जसुं
एह ||
1
तथा जात जे प्रवयों, कोतूहल जात को उहलं ए कह्य ू, तृतिय विशेषण कोतूहल औत्सुक्य जे ते इह रीत कह चलणादिक पदनों प्रवर, स्यूं प्रभु उत्तर देह ? || जे पूर्व अपनी ते श्रद्धा जसं होय नहि उत्पन्नद्ध को वसुं तु कह्यो
।
विशेषण
जोय ||
जेह
ख्यात ।
1
आत ||
जातश्रद्ध आख्यां पछै उत्पन्नश्रद्ध किं प्रवृत्तश्रद्ध पणे करी उत्पन्नचपणं श्रद्धा उपजियां विना प्रवर्तं नहि थात । जातश्रद्ध आख्यां पछे, किम उत्पन्न आख्यात ? || हेतूपणं दिखावा, आय उत्पन्नश्रद्ध | कथं प्रवृत्तश्रद्ध ए ए ? जे उत्पन्नश्रद्ध लद्ध ॥
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वा० -अथ जातश्रद्ध इति एतला मांहेज उत्पन्नश्रद्ध पणुं ययुं, किण अर्थे उत्पन्नश्रद्ध इसो कहिये ? प्रवृत्तश्रद्धपणै करीज उत्पन्नश्रद्धपणुं लब्धपणा थकी । ऊपज्यां बिना श्रद्धा प्रवत्त नहीं इति । इहां उत्तर कहै छै - हेतुपणां ने दिखाड़वा अर्थ तथा कथं प्रवृत्तश्रद्ध कहिये जे कारण थकी पूर्व उत्पन्नश्रद्ध ते प्रवृत्तश्रद्ध इम हेतु दिखाडवा अर्थ कहिये ।
१. टीकाकार ने जातश्रद्ध और उत्पन्नश्रद्ध इन दो शब्दों के प्रयोग की सार्थकता बताते
हुए संस्कृत श्लोक के दो चरण उद्धृत किए हैं
प्रवृत्तदीपामप्रवृत्त भास्करों
1
प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरी ॥
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जिसमें दीपक प्रवृत्त हैं— जल रहे हैं और सूर्य अप्रवृत्त है-उगा नहीं है। यहां एक बात कहने से दूसरी बात स्वतः गम्य होती थी। पर अप्रवृत्त भास्कर इस पद का हेतु के रूप में उपयोग करने के लिए प्रवृत्त दीप इस पद का ग्रहण आवश्यक हो गया है।
इसी प्रकार जातश्रद्ध कहने से उत्पन्नश्रद्ध अपने आप आ जाता है। जो उत्पन्न ही नहीं है वह जात प्रवृत्त कैसे हो सकता है ? किन्तु यहां उत्पन्नश्रद्ध पद के हेतुत्व को उपदर्शित करने के लिए जातश्रद्ध और उत्पन्नश्रद्ध इन दो शब्दों का ग्रहण किया गया है।
६. जायसंसए
वा०
तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशय: । ( वृ० प० १३) - संशयस्तु अनवधारितार्थ ज्ञानं स चैवं तस्य भगवतो जात:-भगवता हि महावीरेण 'चलमाणे चलिए ' इत्यादी सूत्रे चलन्नर्थश्चलितो निर्दिष्टः, तत्र च य एव चलन् स एव चलित इत्युक्तः, ततश्चैकार्थविषयावेतौ निर्देशौ चलन्निति च वर्तमानकालविषय: चलित इति चातीतकालविषयः, अतोऽत्र संशयः कथं नाम य एयार्थी वर्तमानः स एवातीतो भवति ? विवादनयो कालयोरिति । (१००० १३)
१०, ११. जायको उल्ले
तथा जातं
यस्य स जातीजातीत्सुक्य इत्यर्थः कथमेतान् पदार्थान् भगवान् प्रज्ञापयिष्यतीति । ( वृ०० १३)
१२. उप्पन्नसड्ढे ।
उत्पन्ना -- प्रागभूता सती भूता श्रद्धा यस्य स उत्पन्नश्रद्धः । (१०-१० १३) १२. अजातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्न - भिधीयते ?
१४. वृत्पन्नत्वस्य तव्यत्वात् न ह्यनुसा श्रद्धा प्रवर्त्तत इति ।
१५. हेतुत्वप्रदर्शनार्थं, तथाहि कथं प्रवृत्तश्रद्ध उच्यते ? यत उत्पन्नश्रद्ध इति ।
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श० १, उ० १, ढा० ३ ४३
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