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४४.
४४. वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता
४५. णच्चासन्ले णातिद्रे सुस्सूममाणे
४६. णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलियडे
४७. पज्जुवासमाणे एवं वयासी-
(श०१।१०)
वंदै वचस्तुति करै, काय करी नमस्कार। वंदी नै मुनिवर बली, नमस्कार करि सार ।। *नहीं अति ही हूं कड़ा, बली नहीं अति दूर । प्रभु वच सुणवा नीं, इच्छा धरता सनूर ।। नमस्कार करता, श्री जिन सन्मुख सार । अति विनय करी ने, वे कर स्थाप निलाड ।। जिन सेवा करता, ए सुणवा नी विद्ध'। आगल कहिस्य ते, बोल्या वयण प्रसिद्ध ।। से नणं भंते, से कहितां ते ख्यात । चलवा लागो ते, चल्यू करा जगनाथ ।। णणं इम अर्थे, तिहां तिहां अवलोय। एह तणु एम जे, व्याख्यातपणा थी जोय ।। अथवा से शब्दज, मागध देश प्रसिद्ध । अथ शब्द अर्थ में, वत्त एह समृद्ध ।। अथ शब्द बली जे, वाक्य उपन्यासार्थ। परिप्रश्नार्थो वा, प्रारंभ नै प्रश्नार्थ ।। भंते ! गुरु आमंत्रण, हे भदंत ! गुणगेह। हे कल्याणरूपज ! हे सुख-स्वरूप! वा लेह ।। प्राकृत शैली करि, भव संसार नू जाण। अंत हेतुपणा थी, वा भवांत पहिछाण ।। अथवा जे भय ना, अंत हेतु थी एह । तसं भयांत कहिये, प्राकृत शैली करेह ।। तेहने आमंत्रण, हे भवांत ! गुण-हीर। अथवा तसं कहिये, हे भयांत ! अति धीर ।। अथवा हे भान् ! ज्ञानादि करि दीप्यमान । भा धातु कहिये, दीप्त अर्थ में जान ।। हे भ्राजमान ! वा, दीप्यमान दीपेह । भ्राजु धातू ते, दीप्ति अर्थ विह।।
४८,४६. से णणं
'से' इति तद् यदुक्तं पूज्य: ‘चलच्चलित' मित्यादि ‘णूणं' ति एवमर्थे, तत्र तवास्यैवं व्याख्यातत्वात् ।
(वृ०-५० १४) ५०, ५१. अथवा 'से' इति शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थे वर्त्तते अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः परिप्रश्नार्थों बा।
(वृe-प०१४)
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५२-५७. भंते !
भत्ते' त्ति गुरोरामन्त्रणं, ततश्च हे भदन्त !-कल्याणरूप ! सुखरूप ! इति बा, प्राकृतशैल्या वा भवस्यसंसारस्य भयस्य वा-भीतेरन्तहेतुत्वाद्भवान्तो भयान्तो वा तस्यामन्त्रणं हे भवान्त ! हे भयान्त ! वा, भान् वा.....ज्ञानादिभिर्दीप्यमान ! 'भा दीप्तौ' इति वचनात्, भ्राजमान ! बा-दीप्यमान। 'भ्राज दीप्तौ' इति वचनात् ।
(वृ०-प० १४, १५)
५७.
*लय-नमू ए अनन्त चौबीसी १. निकट। २. 'णमंसमाणे' टीकाकार ने इस पाठ की व्याख्या नहीं की है। संभव है उनके सामने
जो प्रति रही है, उसमें यह पाठ नहीं है। ३. तत्त्वावबोध के लिए गुरु के पास किस प्रकार बैठकर सुनना चाहिए? इस सम्बन्ध में टीकाकार ने एक पद्य उद्धत करते हुए कहा है--
निद्दा विगहा परिवज्जिएहि गुत्तेहि पंजलिउडेहि । भत्तिबहुमाणपुव्वं उवउत्तेहि सुणेयव्वं ॥
४६ भगवती-जोड़
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