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वर्ग 9 अध्ययन १
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'चउत्थभत्त' शब्द का व्युत्पत्त्यर्थ व्यवहार एवं प्रवृत्ति में नहीं लिया जाता हैं। चार टंक आहार छोड़ना ऐसा 'चउत्थभत्त' शब्द व्यवहार में अर्थ लेना आगमों से विपरीत है। अतः 'चउत्थभत्त' यह उपवास की संज्ञा है - सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन सूर्योदय तक आठ प्रहर आहार छोड़ना उपवास है।
चार भक्त
चार वक्त (काल) आहार त्याग का यहां आशय नहीं हैं क्योंकि एकांतर करने वाले पारणे के दिन सुबह पहले दिन का छोड़े, शाम का अगले दिन के हिसाब से छोड़े । इस प्रकार तो भोजन ही नहीं कर सकेंगे।
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भगवान् का विहार
चार टंक आहार छोड़ने पर भी चउत्थभत्त कह सकते हैं और पारणे धारणे में एक-एक टंक न छोड़ कर उपवास करने को भी 'चउत्थभत्त' कहते हैं क्योंकि चउत्थभत्त, छठ भत्त और अट्ठम भत्त आदि नाम क्रमशः उपवास, बेले और तेले के हैं ।
भगवान् ऋषभदेव को ६ दिन का संधारा आया, उसे जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति में चौदह भक्त का संथारा कहा है। इसी तरह भगवान् महावीर स्वामी के बेले के संथारे को छठ-भक्त कहा है । उनके तो कोई पारणे का प्रश्न ही नहीं था तो भी उनको उपरोक्त भक्त ही बताया है। कृष्णवासुदेव ने देवकी के पास से पौषधशाला में जाकर गजसुकुमाल जी के लिए तेला किया। इसी प्रकार अभयकुमार ने दोहद - पूर्ति के लिए तेला किया। धारणे के दिन एक टंक न करने पर भी उसे अमभत्त की कहा है तथा भगवती सूत्र में दो दिन के आयंबिल को भी आयंबिल छठ कहा है। इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट है कि उपवास, बेला आदि के नाम ही चउक्त भक्त, छट्ठ भक्त आदि है।
तहासवाणं तथारूपता जैसा वेश वैसा ही जीवन तथारूपता होती है। कथनी
करणी की समानता वाले श्रमण 'तथारूप भ्रमण' कहलाते हैं।
भगवान का विहार
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तएणं अरहा अरिट्ठणेमी अण्णया कयाइं बारवईओ णयरीओ णंदणवणाओ उज्जाणाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय विहारं विहर । कठिन शब्दार्थ पडिणिक्खमइ - निकलते हैं, बहिया बाहर, जणवय विहारं जनपद में विहार ।
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भावार्थ अर्हत भगवान् अरिष्टनेमि ने द्वारिका नगरी के नंदन वन उद्यान से विहार कर दिया और धर्मोपदेश करते हुए विचरण करने लगे।
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