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“कण्हाइ!” अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेव एवं वयासी - से णूणं कण्हा ! तव अयं अज्झत्थि समुप्पण्णे धण्णा णं ते जालि जाव पव्वइत्तए? से णूणं कण्हा! अमट्ठे ? हंता अस्थि ।
भावार्थ भगवान् अरिष्टनेमि ने अपने ज्ञान से कृष्ण - वासुदेव के हृदय में आये हुए विचारों को जान कर आर्त्तध्यान करते कृष्ण-वासुदेव से इस प्रकार कहा 'हे कृष्ण ! तुम्हारे मन
इस प्रकार भावना हो रही है कि वे जालि, मयालि आदि कुमार धन्य हैं, जिन्होंने अपना धन-वैभव, स्वजन और याचकों को दे कर अनगार हो गये हैं। मैं अधन्य हूँ, अकृतपुण्य हूँ, जो राज्य, अन्तःपुर और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों में ही गृद्ध हूँ। मैं भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या नहीं ले सकता।'
'हे कृष्ण ! क्या यह बात सत्य है ? ' कृष्ण ने उत्तर
अन्तकृतदशा सूत्र
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आपसे कोई बात छिपी नहीं है । '
विवेचन - शंका - 'कण्हाइ !', 'कण्हा!' इस प्रकार भगवान् द्वारा श्रीकृष्ण को दो बार
संबोधित करने का क्या कारण है?
समाधान
भगवान् अरिष्टनेमि द्वारा दो बार श्रीकृष्ण का नाम लेने में पहला तो अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिए सम्बोधन है। दूसरे संबोधन से बात शुरू की जा रही है। भगवान् महावीर स्वामी द्वारा गौतमस्वामी को दो बार संबोधन करने का वर्णन स्थानांग सूत्र के तीसरे स्थान में 'प्रमाद वर्जना' पद में मिलता है।
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'हाँ भगवन्! आपने जो कहा, वह सभी सत्य है। आप सर्वज्ञ हैं।
'कृष्ण!' ऐसा अपनी ओर आकर्षित करने के लिए प्रथम बार संबोधन देकर उनका ध्यान अपनी ओर लग गया है तब दूसरी बार संबोधन देकर प्रभु ने फरमाया “हे कृष्ण ! क्या अभी अभी तुम्हारे मन में ये विचार आये कि धन्य हैं वे जालि आदि कुमार और अधन्य, अपुण्य, अकृतपुण्य हूं मैं - जो दीक्षा ग्रहण नहीं कर पाता। यह बात सही है क्या?"
कृष्ण ने गद्गद् हो कर कहा मेरे जीवनधन !' जिनवाणी रश्मियों के ज्योतिर्धर ! यादव कुलकलाधर !!! घट घट के अंतर्यामी स्वामिन्! आप तो त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों के ज्ञाता द्रष्टा हैं, भला आपसे क्या कोई बात प्रच्छन्न हैं? आप सत्य महाव्रत के परम धारक हैं, आपका ज्ञान अवितथ है, सत्य है, सद्भूत है, तथ्य है। आपने फरमाया वह सत्य ही है।
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