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वर्ग ५ अध्ययन १ - कृष्ण का पश्चात्ताप ******************************************************rkekkkkkkkkkekke* निषेध कर दिया तथा बची-खुची मदिरा बाहर फिकवा दी। एक बार कुछ यादव कुमार घोड़े लेकर घूमने गए। प्यास लगी तो गड्ढे में रही शराब पी ली। वहीं द्वैपायन ऋषि तपयुक्त ध्यान कर रहे थे। मदिरा के नशे में उनके ऊपर घोड़े कुदाने लगे तथा कहीं एक मरा सर्प पड़ा था, उसे ऋषि के गले में डाल दिया और उसे मारा। इस अभद्र चेष्टा से ऋषि कुपित हुए। उन्होंने द्वारिका विनाश करने का निदान कर लिया। मालूम पड़ने पर कृष्ण बलदेव ने उन्हें निदान त्यागने की प्रार्थना की पर ऋषि ने कहा - 'तुम दोनों बच सकोगे।'
कृष्ण का पश्चात्ताप
(५२) तए णं कण्हस्स वासुदेवस्स अरहओ अरि?णेमिस्स अंतिए एचमढं सोच्चा अयमेयारूवे अज्झथिए समुप्पण्णे - धण्णा णं ते जालि-मयालि-उवयालिपुरिससेण-वारिसेण-पज्जुण्ण-संब-अणिरुद्ध-दढणेमि-सच्चणेमिप्पभिइओ कुमारा, जे णं चिच्चा हिरण्णं जाव परिभाइत्ता अरहओ अरिट्ठणेमिस्स, अंतियं मुंडा जाव पव्वइया, अहण्णं अधण्णे अकयपुण्णे रज्जे य जाव अंतेउरे य माणुस्सएसु य कामभोगेसु मुच्छिए णो संचाएमि अरहओ अरिट्ठणेमिस्स अंतिए जाव पव्वइत्तए।
कठिन शब्दार्थ - धण्णा - धन्य हैं, चिच्चा - छोड़ कर, परिभाइत्ता - ‘दाणं च दाइयाणं' - सम्पत्ति का दान दे कर एवं परिजनों में विभाग (बांट) कर के, अकयपुण्णे - अकृतपुण्य, रज्जे - राज्य, अंतेउरे - अंतःपुर में, कामभोगेसु मुच्छिए - कामभोगों में मूर्च्छित।
भावार्थ - भगवान् अरिष्टनेमि के मुख से द्वारिका नगरी के विनाश का कारण जान कर कृष्ण-वासुदेव के हृदय में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि वे जालि, मयालि, उवयालि, पुरुषसेन, वारिसेन, प्रद्युम्न, शाम्ब, अनिरुद्ध, दृढनेमि और सत्यनेमि आदि धन्य हैं कि जिन्होंने अपनी सम्पत्ति, स्वजन और याचकों को दे कर भगवान् अरिष्टनेमि के पास मुण्डित हो कर प्रव्रजित हो गये। मैं अधन्य हूँ, अकृत-पुण्य हूँ, जिससे में राज्य में, अन्तःपुर में और मनुष्य सम्बन्धी काम-भोगों में ही फंसा हुआ हूँ। इनसे विमुक्त हो कर मैं भगवान् अरिष्टनेमि के समीप दीक्षा नहीं ले सकता।
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