Book Title: Antkruddasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 171
________________ १४६ अन्तकृतदशा सूत्र ***************karktetrictldkREETMediatrikadeke e dednekakkarNEE* अर्जुन अनगार की सहनशीलता तए णं से अज्जुणए अणगारे तेहिं बहूहिं इत्थीहि य पुरिसेहि य डहरेहि य महल्लेहि य जुवाणएहि य आओसेज्जमाणे जाव तालेज्जमाणे तेसिं मणसा वि अप्पउस्समाणे सम्म सहइ, सम्म खमइ, सम्मं तितिक्खइ, सम्मं अहियासेइ, सम्म सहमाणे, खममाणे, तितिक्खमाणे, अहियासमाणे, रायगिहे णयरे उच्चणीयमज्झिमकुलाइं अडमाणे जइ भत्तं लभइ तो पाणं ण लभइ, जइ पाणं लभइ तो भत्तं ण लभइ। कठिन शब्दार्थ - आओसेजमाणे - आक्रोश करते हुए, तालेज्जमाणे - ताडित करते हुए, मणसा वि - मन से भी, अप्पउस्समाणे - द्वेष नहीं करते हुए, सम्मं - सम्यक् प्रकार से, सहइ - सहन किया, खमइ - क्षमा किया, तितिक्खइ - तितिक्षा की, अहियासेइ - काया से सहन किया, भत्तं - आहार, लभइ - मिलता है, पाणं - पानी। ____ भावार्थ - बहुत-सी स्त्रियों, पुरुषों, बच्चों, वृद्धों और तरुणों से तिरस्कृत यावत् ताड़ित से अर्जुन अनगार, उन लोगों पर मन से भी द्वेष नहीं करते और उनके दिये हुए आक्रोश आदि परीषहों को समभाव से सहन करने लगे। वे क्षमाभाव धारण कर एवं दीन-भाव से रहित, मध्यस्थ भावना में विचरने लगे तथा निर्जरा की भावना से सभी परीषह-उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करने लगे। इस प्रकार सभी परीषह उपसर्गों को समभाव पूर्वक सहन करते हुए ऊँच-नीच-मध्यम कुलों में गृह सामुदानिक भिक्षा के लिए विचरते हुए उन अर्जुन अनगार को कहीं आहार मिलता था, तो पानी नहीं मिलता और यदि पानी मिलता था, तो आहार नहीं मिलता था। विवेचन - 'सम्म सहइ, सम्म खमइ, सम्म तितिक्खड़, सम्मं अहियासेई'ये चारों पद एकार्थक लगते हैं किन्तु टीकाकार अभयदेवसूरि ने इनकी व्याख्या इस प्रकार की है - सहइ - सहते - बिना किसी भय से संकट सहन करते हैं। खमइ - क्षमते - क्रोध से दूर रह कर शांत रहते हैं। तितिक्खइ - तितिक्षते - किसी प्रकार की दीनता दिखाये बिना परीषहों को सहन करते हैं। अहियासेइ - अधिसहते - खूब सहन करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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