Book Title: Antkruddasha Sutra
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 173
________________ .. १४८ अन्तकृतदशा सूत्र ************************************* *********************** अकलुष - द्वेष रहित होने से मन में किसी प्रकार की कलुषता - मलिनता नहीं थी। अनाविल - आकुलता व्याकुलता से रहित थे। .. अविषाद - क्षोभ शून्य होने से मन में किसी प्रकार का विषाद-दुःख नहीं था। ... अपरितांतयोगी - 'मेरा इस प्रकार तिरस्कृत जीवन से क्या प्रयोजन है' - ऐसी ग्लानि उनके मन में नहीं थी। अतएव वे निरंतर समाधि में लीन थे। समाधि में सतत लगे रहने के कारण अर्जुन अनगार को 'अपरितांतयोगी' कहा गया है। 'बिलमिव पण्णगभूएणं' - पन्नग सर्प को कहा जाता है। लोगों द्वारा लाठी, पत्थरों से पीछा किया जाता हआ सर्प जिस प्रकार जीवन रक्षा के लिए झटपट बिल में घुस जाता है, वैसे ही पेट रूपी बिल में आहार पानी रख दिया। सर्प का शरीर सुकोमल होता है, कांटों की बाड़ में जीवन रक्षा के लिए नहीं घुसे तो लोग लाठी पत्थरों से मार डालते हैं। तीखे तीखे नुकीले कांटों का ध्यान न रखे तो शरीर लहुलुहान हो जाए। फिर किस डाक्टर के पास इलाज करावें? अतः जैसे सर्प सावधानी से प्राण रक्षा करता है वैसे ही मुनि के लिए भी सुस्वादकुस्वाद का विचार किए बिना काया को भाड़ा देने के लिए ही परिमित भोजन का विधान है। अर्जुन माली द्वारा (ग्रंथकारों के मतानुसार छह महीने लगभग) प्रतिदिन सात प्राणियों का अनवरत संहार हुआ था। साधारण समझ वाली जनता इस दुःख को इतनी जल्दी कैसे भूल जाती? 'अब ये हत्यारे नहीं रहे हैं, अब तो ये प्राणी मात्र के परम रक्षक हैं। हम जिस छह काय के घातक हैं, ये उनमें से एक भी जीव की घात नहीं करते।' यह बात कौन समझाता तथा समझाने पर भी कौन समझता? फलतः वही हुआ जो होना था। अर्जुन अनगार को कहीं गालियाँ सुननी पड़ती, कहीं कोई-कोई पीट भी देता। केवल भूख और प्यास का ही परीषह दुर्जय नहीं है। कईयों के लिए भूख-प्यास सहना सहज है पर अपमान जनक वचनों को वे सह नहीं पाते। अर्जुन अनगार के सामने आक्रोश व वध परीषह का प्रकृष्ट रूप विद्यमान था। . उन्होंने जन आक्रोश को सीधे सहज रूप में स्वीकार किया - 'ये तो बेचारे केवल मुँह से कह रहे हैं, लाठी पत्थर या ईंट से ही मार रहे हैं, पर मैंने तो इनके प्रिय आत्मीयजनों को मृत्यु मुख में डाल दिया था। इनका दोष ही क्या है? मुझे अपने पूर्वकृत कर्मों की निर्जरा करनी ही होगी। यदि मैं मन में भी ऊंचे-नीचे परिणाम लाऊँगा तो मेरा मुनिपना सार्थक कैसे होगा? मेरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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