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अन्तकृतदशा सूत्र
जीवनभर कृष्ण महाराज ने पद्मावती की सुरक्षा की। उनकी सुख सुविधा का पूरा ध्यान रखा, पर यह तो लौकिक कर्तव्य है। ऐसा बहुत से करते हैं। लोकोत्तर कर्तव्य तो यह है कि व्यक्ति अपने परिजनों को धर्म में सहायता देकर आगे बढ़ाये। आगे न बढ़ा सके तो टांग पकड़ कर पीछे तो नहीं खींचे।
धर्म-प्रेम की उत्कटता के कारण उन्होंने पद्मावती रानी को हाथों से स्नान करवाया, विभूषित किया एवं प्रभु के पावन पद-पंकजों में ले गए। पद्मावती रानी के लिए हृदयोद्गारों में किंचित् मात्र भी अतिशयोक्ति नहीं है। कर्तव्य निभा कर आदर्श पति का रूप प्रकट करने में कृष्ण महाराज ने कोई कसर नहीं रखी।
- “मैं तो चक्की में पिस रहा हूँ। सारा संसार पिस रहा है। कोई भाग्यवान् दाना चक्की से उछल कर बाहर निकले तो उसे सहायता दी जाय", इसी महान् अनुकम्पा से प्रेरित उनकी उद्घोषणा उनके ज्योर्तिमय जीवन की स्वर्णिम आभा है।
पद्मावती रानी ने संयम स्वीकार करके राजरानी पद को एक दम भूला दिया। 'मैं सुकुमारी हूँ, मुझसे तपस्या नहीं की जाती, मैं रूक्ष संयम का, परीषहों एवं उपसर्गों का पालन नहीं कर सकती।' यह भावना उनके नजदीक भी नहीं आई। संयम स्वीकारते ही गुरुणी की सेवा में अपने को अर्पित कर दिया। स्वाध्याय एवं तपस्या की भट्टी में अपने को होम दिया। इंगित एवं आकारों पर जीवन न्यौच्छावर कर देने वाले विरले साधकों में पद्मावती आर्या का नाम अग्रगण्य है। . ... घड़ा कितना ही सुन्दर एवं सुघड़ क्यों न हो, यदि उसने आंच नहीं सही, अग्नि की लाल लपटों में वह पका नहीं तो उसकी कोड़ी कीमत भी नहीं है। यदि भूलचूक से उस कच्चे घड़े में जल डाल भी दिया गया तो जल के साथ वह भी नष्ट हो जायेगा। साध्वी पद्मावती जी ने तप एवं आज्ञा की आंच में जीवन-घट को पकाया एवं इष्टितार्थ की सिद्धी कर ली।
जब कुसुमकोमल राजरानियाँ भी संयम की शूलसंकुल वीथियाँ पार कर सकती हैं तो वे वर्तमान साधकों के थके हारे, भूले, भटके जीवन के लिए करारी चुनौती क्यों न हो?
॥ पांचवें वर्ग का प्रथम अध्ययन समाप्त॥
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